बौद्ध सम्प्रदाय में योग साधना
बौद्ध सम्प्रदाय में योग साधना:-
भगवान बुद्ध ने साधना मार्ग का प्रवर्तन करते समय सर्वप्रथम चार आर्य सत्य
का आदेश किया जिसका ज्ञान होना प्रत्येक साधकों के लिए साधना के पूर्व बौद्ध
धर्म में आवश्यक माना जाता गया है। यह चार आर्य सत्य इस प्रकार हैं-
(1) प्रथम आर्यसत्य-दुःख:-
भगवान बुद्ध कहते हैं- जन्म लेना, बूढ़ा होना, मृत्यु होना शौक करना,
रोना-पीटना, पीडि़त होना, चिन्ता करना, परेशान होना, इच्छित वस्तु की प्राप्ति न
होना दुःख है। पाँचों उपादान-रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान दुःख है।
‘‘जातिपि दुःक्खा, जरापि दुःक्खा, मरणम्पि दःुक्ख्ंा, सोकपरिदेव- ‘‘जातिपि दुःक्खा, जरापि दुःक्खा, मरणम्पि दःुक्ख्ंा, सोकपरिदेव- ‘‘जातिपि दुःक्खा, जरापि दुःक्खा, मरणम्पि दःुक्ख्ंा, सोकपरिदेव- ‘‘जातिपि दुःक्खा, जरापि दुःक्खा, मरणम्पि दःुक्ख्ंा, सोकपरिदेव-
दोमनस्सुपासापि दुःक्खा, अप्पियेहि सम्पयोगो दुःक्खो, पियेहि विप्पया दोमनस्सुपासापि दुःक्खा, अप्पियेहि सम्पयोगो दुःक्खो, पियेहि विप्पया दोमनस्सुपासापि दुःक्खा, अप्पियेहि सम्पयोगो दुःक्खो, पियेहि विप्पया दोमनस्सुपासापि दुःक्खा, अप्पियेहि सम्पयोगो दुःक्खो, पियेहि विप्पयोगो दुःक्खो, ेगो दुःक्खो, ेगो दुःक्खो, ेगो दुःक्खो,
यम्पिच्छं न लभते तम्पि दुःक्खं सड्
ियम्पिच्छं न लभते तम्पि दुःक्खं सड् ियम्पिच्छं न लभते तम्पि दुःक्खं सड्
ियम्पिच्छं न लभते तम्पि दुःक्खं सड्.ि .. .खत्तेन पचुपादानक्खन्धापि दुःक्खा।’’ खत्तेन पचुपादानक्खन्धापि दुःक्खा।’’ खत्तेन पचुपादानक्खन्धापि दुःक्खा।’’ खत्तेन पचुपादानक्खन्धापि दुःक्खा।’’
यह दुःख तीन प्रकार का है-
(1) दुःख दुखता
(2) संस्कार दुःखता
(3) विपरिणाम दुःखता
जो दुःख उत्पत्ति एवं स्थिति में दुःखद होते है ं, वे परिणाम में भी दुःखद होते
हैं, जो सुखोत्पादक संस्कार हैं, वे उत्पत्ति और स्थिति में सुखकारक होते हुए भी
परिणाम में दुःखद होते हैं। अदुःख और असुखवेदना संस्कार से ही दुःखकारक होते हैं। इसीलिए कहा गया है कि सभी संस्कार संस्कार-दुःख होने से दुःख है। धम्मपद
में कहा गया है सुख मनाने से दुःख और भय उत्पन्न होता है, क्योंकि समस्त संसार
आग से जल रहा है, तब उसमें आनन्द कहाँ। पृथ्वी पर ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ
पर मृत्यु का शासन न हो। जीवन दुःखों से परिपूर्ण है। सभी वस्तुएँ जो उत्पन्न हुई
है। दुःख अनत्यि एवं अनात्मरूप है। जन्म, जरा, रोग, मृत्यु, शोक, क्लेश, आकांक्षा
और नैराश्य सभी आसक्ति उत्पन्न है अतः वे सभी दुःख है।
(2) द्वितीय आर्यसत्य-दुःख समुदय:- द्वितीय आर्यसत्य-दुःख समुदय:- द्वितीय आर्यसत्य-दुःख समुदय:- द्वितीय आर्यसत्य-दुःख समुदय:-
दुःख समुदय अर्थात् दुःख का कारण। संसार मंे दुःख ही नहीं है, उसका
कारण भी है। बिना कारण के कार्य सम्भव नहीं है। जब कार्य है तो उसका कारण
भी है। दुःख निवारक हेतु उसका कारण जानना आवश्यक है। क्योंकि बिना कारण
के ज्ञान के अभाव में दुःख निवृत्ति नहीं हो सकती। प्रतीत्यसमुत्पाद में दुःख के
कारण एवं भवचक्र की प्रक्रिया पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। प्रतीत्य समुत्पाद के
अनुसार समस्त धर्मों की उत्पत्ति प्रत्यय वश होती है।
यदि ‘सर्वम दुःखन’ तो दुःख का हेतु होना चाहिए। दुःख का क्या हेतु है?
दुःख का हेतु जन्म या जाति है। जाति भी तो फल है। अतः जाति का क्या हेतु है?
भव-जन्म लेने की इच्छा जन्म अथवा जाति का हेतु हैं। भव भी तो प्रतीत्यसमुत्पन्न
है। इसका हेतु क्या है?
उपादान अथवा भागेच्छा हेतु है। फिर भोगच्छा भी तो फल है। इसका क्या
हेतु है?
तुष्णा हेतु है। तृष्णा न हो, सन्तुष्टि हो तो भोगच्छा नहीं होगी। फिर तृष्णा
का क्या हेतु है? तृष्णा क्यों उत्पन्न होती है? तृष्णा का हेतु क्या है?
वेदना-विषयों का अनुभव होता है। पुनः वेदना क्यो ं होती है? इन्द्रियों एवं
विषयों का सम्पर्क-स्पर्श होने के कारण फिर स्पर्श क्यों होता है?
इन्द्रियाँ अथवा षड़ायतन के कारण स्पर्श होता है। षड़ायतन का हेतु क्या
है? क्यों छः इन्द्रिया होती हैं। 26 द्य च् ं ह म
नाम-रूप अर्थात् मन एवं शरीर षड़ायतन का हेतु है। नाम-रूप का क्या हेतु
है?
विज्ञान या चेतना नाम-रूप का हेतु है। अब विज्ञान अथवा चेतना का हेतु क्या है?
पूर्व जन्मों के संसार रहने के कारण विज्ञान उत्पन्न होते हैं। यह संस्कार
उत्पन्न क्यों होते हैं। इनका क्या हेतु है? संस्कार का हेतु अविद्या है। अन्ततः
अविद्या का हेतु क्या है? अविद्या ही मूल कारण है। दुःख से अविद्या पर्यन्त 12
हेतुओं की परम्परा को जो चक्रवत् है उसे भवचक्र, संसारचक्र द्वादशनिदान चक्र,
जरामरण चक्र प्रतीत्यसमुत्पाद चक्र चक्र-चक्र कहते हैं।
इस चक्र में मनुष्य भूत, वर्तमान एवं भविष्य जीवन का समावेश है। बुद्ध कर्म
सिद्धान्त के अनुयायी है। उनके अनुसार अतीत कर्माें के फलस्वरूप वर्तमान जीवन
के कर्माें से अनागत जीवन का निर्माण होगा।
भवचक्र निम्न रूप में रखा जा सकता है-
1. अविद्या
2. संस्कार -पूर्वजन्म (अतीत)
3.विज्ञान
4.नामरूप
5.षडा़यतन
6.स्पर्श
7.वेदना
8.तृष्णा
9.उपादान
10.भव -वर्तमान जन्म
11.जाति
12.जरामरण -अनागत जन्म
(३) तृतीय आर्य सत्य दुःख निरोध:- निःशेष दुःख का रूक जाना दुःख निरोध है।
दुःख के कारण का नाश दुःख निरोध है। निःशेष दुःख का आत्यान्तिक निरोध ही
निर्वाण है। निर्वाण दुःख शुन्यता है। प्रतीत्यसमुत्पाद दुःख-समुदय बताता है। वही
दुःख निरोध भी बताता है। भवचक्र के अनुसार अविद्या से संस्कार, संस्कार से
विज्ञान, विज्ञान से नाम रूप, नामरूप से षड़ायतन, षड़ायतन से स्पर्श, स्पर्श से
वेदना, वेदना से तृष्णा से उपादान, उपादान से भव, भव से जाति, जाति से
जरामरण-दुःख यही दुःख समुदय का क्रम है। इसी क्रम में दुःख निरोध भी होता
है।
अविद्या को निरोध से संस्कार निरूद्ध होते है ं। संस्कार के निरोध से विज्ञान
निरूद्ध हो जाते हैं। विज्ञान के निरोध से नाम-रूप निरूद्ध हो जाते हैं। नाम-रूप
के निरोध से षडा़यतन निरूद्ध हो जाते है ं। षडा़यतन के निरोध से स्पर्श निरूद्ध हो
जाते हैं। स्पर्श के निरोध से वेदना निरूद्ध हो जाती है। वेदना के निरोध से तृष्णा
निरूद्ध हो जाती है। तृष्णा के निरोध से उपादान निरूद्ध हो जाते हैं। उपादान के
निरोध से भव निरूद्ध हो जाता है। भव के निरोध से जाति निरूद्ध हो जाती है।
जाति के निरोध से जरामरण या दुःख निरूद्ध हो जाता है। यही दुःख निरोध का
क्रम है।
(4) चतुर्थ आर्य सत्य-दुःखनिरोध गामिनी प्रतिपदा:- चतुर्थ आर्य सत्य-दुःखनिरोध गामिनी प्रतिपदा:- चतुर्थ आर्य सत्य-दुःखनिरोध गामिनी प्रतिपदा:- चतुर्थ आर्य सत्य-दुःखनिरोध गामिनी प्रतिपदा:-
दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा के अन्तर्गत वह सभी साधनाएँ आ जाती हैं जो
दुःख निरोध में सहायक है ं।
भगवान बुद्ध ने दुःख निरोध के लिए आर्याष्टांगिक मार्ग के अनुसरण की
शिक्षा दी है। इस आर्य सत्य को भगवान बुद्ध ने चक्षु देने वाला, ज्ञान देने वाला
तथा बोधि देने वाला बताया है-
‘‘इदं खो पन, भिक्खवे दुक्खनिरोधगामिनी प्रतिपदा अरियसच्चं अयमेव अरियो ‘‘इदं खो पन, भिक्खवे दुक्खनिरोधगामिनी प्रतिपदा अरियसच्चं अयमेव अरियो ‘‘इदं खो पन, भिक्खवे दुक्खनिरोधगामिनी प्रतिपदा अरियसच्चं अयमेव अरियो ‘‘इदं खो पन, भिक्खवे दुक्खनिरोधगामिनी प्रतिपदा अरियसच्चं अयमेव अरियो
अट्ठा िअट्ठा िअट्ठा िअट्ठाड्ढि को मग्गो, पुब्वे अननुस्तुत्तेषु धम्मेषु चक्खु उदपादि, पज्जा उदपादि, को मग्गो, पुब्वे अननुस्तुत्तेषु धम्मेषु चक्खु उदपादि, पज्जा उदपादि, को मग्गो, पुब्वे अननुस्तुत्तेषु धम्मेषु चक्खु उदपादि, पज्जा उदपादि, को मग्गो, पुब्वे अननुस्तुत्तेषु धम्मेषु चक्खु उदपादि, पज्जा उदपादि,
विज्जाउदपादि अ विज्जाउदपादि अ विज्जाउदपादि अ विज्जाउदपादि आलोको उदपादि।’’ ालोको उदपादि।’’ ालोको उदपादि।’’ ालोको उदपादि।’’