अष्टांगयोग (राज योग)
पतंजलि योग-दर्शन में योग
योग-दर्शन में मोक्ष को अपनाने के लिये तत्वज्ञान पर अधिक बल दिया गया है। योग-दर्शन के अनुसार तत्वज्ञान की प्राप्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक मनुष्य चित्त विकारों से परिपूर्ण है। अतः योग-दर्शन में चित्त की स्थिरता को प्राप्त करने के लिये तथा चित्तवृत्ति का निरोध करने के लिए योग-मार्ग की व्याख्या हुई है। योग-दर्शन में योग का अर्थ चित्तवृत्तियों का निरोध है। योग-दर्शन में राजयोग का विवेचन मिलता है। योग-मार्ग की आठ सीढ़ियाँ हैं। इसीलिये इसे अष्टांगयोग भी कहा जाता है। यह अष्टांग-मार्ग इस प्रकार है (1) यम (2) नियम(3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान (8) समाधि।
अष्टांग योग :-
‘‘यमनियमासन प्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान समाध्योऽष्टांवगानि।।’’पा0यो0सू0 2/29
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि (ये योग के) आठ अंग है।
(1) यम :-
‘‘अहिंसासत्यस्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमः।’’ पा0यो0सू0-2/30
अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह ये यम हैं।
अहिंसा :- मन, वाणी, और शरीर से किसी प्राणी को कभी किसी प्रकार किंचिन्मात्र भी दुःख न देना अहिंसा है, परदोष-दर्शन का सर्वथा त्याग भी इसी के अन्तर्गत है। इसी का उल्लेख ईश्वर गीता में इस प्रकार है-
‘‘कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सदा।
अक्लेशजननं प्रोक्ता त्वहिंसापरमर्षिभि :।।’ ईश्वर गीता, योग सार संग्रह, द्वितीय अंश की उद्वत
’ अर्थात् मन, वचन एवं कर्म द्वारा सभी जनों को क्लेश न पहुँचाने को ही महर्षि जनों ने अहिंसा कहा है।
अहिंसा का पालन करने से सभी प्राणियों में योगी के प्रति मैत्री भावना का उदय होता है।
सत्य :- इन्द्रिय और मन से प्रत्यक्ष देखकर, सुनकर या अनुमान करके जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा-का-वैसा ही भाव प्रकट करने के लिए प्रिय और हितकर तथा दूसरों को उद्वेग उत्पन्न न करने वाले जो वचन बोले जाते हैं, उनका नाम ‘सत्य’ है। इसी प्रकार कपट और छल रहित व्यवहार भी सत्य है।
व्यास भाष्य के अनुसार ‘अर्थानुकूल वाणी एवं मन का व्यवहार होना अर्थात् जैसा देखा गया हो, जैसा अनुमान किया गया हो एवं जैसा सुना गया हो, उसी प्रकार वाणी से कथन करना ही सत्य है। दूसरे पुरूषों में अपने बोध को सम्प्रेषित करने हेतु कही गयी वाणी यदि वन्चक भ्रान्ति उत्पन्न करने वाली अथवा यथार्थ ज्ञान प्रदान करने में असमर्थ न हो एवं प्राणियों के उपकार हेतु प्रवृत्त हुई हो, तो वह वाणी सत्य है। इस प्रकार कही गयी वाणी यदि उपधाते कराने वाली हो, तो वह सत्य (वाणी) नहीं होगी अपितु इस पुण्याभास पुण्य के प्रतिरूप पाप से महान् दुःख होगा। इसीलिए भली-भाँति परीक्षा करके सभी प्राणियों के हितार्थ सत्य वचन का ही प्रयोग करना चाहिए।
‘सत्य’ की प्रबलता से योगी के वचन में फल देने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है।
अस्तेय :- दूसरे के स्वत्व का अपहरण करना, छल से या अन्य किसी उपाय से अन्याय पूर्वक अपना बना ‘स्तेय’ चोरी) है। इन सब प्रकार की चोरियों के अभाव का नाम ‘अस्तेय’ है। भाष्य कर्म के अनुसार ‘अशास्त्रीय ढंग से अर्थात् धर्म के विरूद्ध अन्याय पूर्वक किसी दूसरे व्यक्ति के द्रव्य इत्यादि को ग्रहण करना स्तेय है। पर वस्तु में राग का प्रतिषेध होना ही ‘अस्तेय’ है।
अस्तेय की दृढ़ स्थिति होने पर योगी को सर्वरत्नों की प्राप्ति होती है।
ब्रह्मचर्य :- मन, वाणी और शरीर से होने वाले सब प्रकार के मैथुनों का सब अवस्थाओं में सदा के त्याग करके सब प्रकार से वीर्य की रक्षा करना ब्रह्मचर्य है। अतः साधक को चाहिए कि न तो कामदीपन करने वाले पदार्थों का सेवन करें, न ऐसे दृश्यों को देखें न ऐसी बातों को सुने, न ऐसे साहित्य को पढ़ें और न ऐसे विचारों को ही मन में लावे तथा स्त्रियों की ओर स्त्री आसक्त पुरूषों का संग भी ब्रह्मचर्य में बाधक है, अतः ऐसे संग से सदैव अलग रहना चाहिए।
ब्रह्मचर्य की स्थिति दृढ़ होने से वीर्य का लाभ होता है।
अपरिग्रह :- विषयों के राग में विभिन्न प्रकार के दोषों की उद्भावना कर अपनी आवश्यकता से अधिक धन का संचय न करना ही अपरिग्रह है।
अपरिग्रह की स्थिति में योगी को भूत एवं भविष्य के जन्म का ज्ञान हो जाता है। जब यह यम देश काल और जाति की सीमा मे न बंधकर सभी स्थितियों में सम्पन्न किये जाते हैं तब सार्वभौम महाब्रत कहलाते हैं।
(2) नियम :- ‘‘शौचसन्तोषतपस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।’’ पा0यो0सू0- 2/32
शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान यह नियम है।
शौच :- शौच का अर्थ है पवित्रता। शौच के दो प्रकार होते हैं-
(1) बाह्य शौच (2) आन्तरिक शौच।
;पद्ध बाह्य शौच :- जल मृतिका आदि के द्वारा शरीर, वस्त्र और मकान आदि के मल को दूर करना बाह्य शुद्धि है, इसके अतिरिक्त अपने वर्णाश्रम और योग्यतानुसार न्यायपूर्वक धन को और शरीर निर्वाह के लिए आवश्यक है अन्न आदि पवित्र वस्तुओं को प्राप्त करके उनके द्वारा शास्त्रानुकूल शुद्ध भोजनादि करना तथा सबके साथ यथायोग्य पवित्र बर्ताव करना-यह सब बाह्य शौच के अन्तर्गत आता है।
;पपद्ध आन्तरिक शौच :- जप,तप और शुद्ध विचारों के द्वारा एवं मैत्री आदि की भावना से अन्तः करण के रागद्वेषादि मलों का नाश करना आन्तरिक पवित्रता है।
शौच से अपने अंगों से घृणा एवं दूसरे के संसर्ग का अभाव होता है।
संतोष :- कर्तव्य कर्म का पालन करते हुये उसका जो कुछ परिणाम हो तथा प्रारब्ध के अनुसार अपने आप को जो कुछ भी प्राप्त हो एवं जिस अवस्था और परिस्थिति में रहने का संयोग प्राप्त हो जाये उसी में संतुष्ट रहना और किसी प्रकार की भी कामना या तृष्णा न करना संतोष है।
तप :- सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, सुख-दुःख, हर्ष-शोक एवं मान-अपमानय आदि सम्पूर्ण द्वन्दों की अवस्था में बिना विक्षेप के स्वस्थ शरीर एवं निर्मल अन्तःकरण के साथ योग मार्ग में प्रवृत्त रहा जा सके, इस उद्देश्य से, जिस प्रकार अश्व विद्या में कुशल सारथी घोड़ों को संयमित करता है उसी प्रकार शरीर, प्राण, इन्द्रियों एवं मन का उचित रीति से अभ्यास द्वारा संयमन करना ही तप है।
तप से शरीर एवं इन्द्रियों की शुद्धि होती है।
स्वाध्याय :- जिनसे अपने कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान हो ऐसे शास्त्रां का अध्ययन और ईष्ट देवता का नाम जाप आदि स्वाध्याय है।
स्वाध्याय से इष्ट देवता का साक्षात्कार होता है।
ईश्वर प्रणिधान :- शरीर, इन्द्रियाँ, मन, प्राण एवं अन्तःकरण से सम्पदित किये जाने वाले समस्त कर्मां एवं उनके फलों को परम् गुरू ‘ईश्वर’ में अर्पित कर देना ही ईश्वर प्रणिधान है।
ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि होती है।
(3) आसन :- ‘‘स्थिरसुखमासनम्।।’’ पा0यो0सू0- 2/46
अर्थात् निश्चल (हिलन-चलन से रहित) सुखपूर्वक बैठने का नाम ‘आसन’ है।
हठयोग में आसनों के बहुत भेद बतलाये गये हैं जो शरीर को स्वस्थ एवं योग साधना के योग्य बनाते है। यहाँ उनका वर्णन न करने बैठने का तरीका साधक की इच्छा पर है। भाव यह है कि जो साधन अपनी योग्यता के अनुसार जिस रीति से बिना हिले-डुले स्थिर भाव से सूखपूर्वक बिना किसी प्रकार की पीड़ा के बहुत समय तक बैठ सके वही उसके लिए उपर्युक्त हैं इसके अतिरिक्त जिस पर बैठकर साधन किया जाता है, उसका नाम भी आसन, अतः वह भी स्थिर और सुख पूर्वक बैठने योग्य होना चाहिए।
अग्रलिखित सूत्र में महर्षि पंतजलि ने आसन सिद्धि उपाय का किया है-
प्रयत्न की शिथिलता से और अनन्त (परमात्मा) में मन लगाने से आसन सिद्ध होता है।
शरीर को सीधा और स्थिर करके सुख पूर्वक बैठ जाने के बादशरीर-सम्बन्धी सब प्रकार की चेष्टाओं का त्याग कर देना ही प्रयत्न की शिथिलता है। इसमें और परमात्मा में मन लगाने से इन दो उपायों से आसन की सिद्धि होती है।
‘‘ततो द्वन्द्वानभिधात।’’ पा0यो0सू0- 2/48
उस (आसन की सिद्धि) से (शीत-उष्ण आदि) द्वन्दों का आघात नहीं लगता है।
(4) प्राणायाम :- ‘‘तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणयाम :।।’’ पा0यो0सू0- 2/49
अर्थात् उस आसन की सिद्धि होने के बाद श्वांस और प्रश्वांस की गति रूक जाना ‘प्राणायाम’ है।
प्राणवायु का शरीर में प्रवृष्टि होना श्वांस है और बाहर निकालना प्रश्वांस है। इन दोनों की गति का रूक जाना अर्थात् प्राणवायु की गमन-आगमन रूप क्रिया का बन्द हो जाना ही प्राणायाम का सामान्य लक्षण है।
प्राणायाम के तीन भेद हैं- (1) पूरक, (2) रेचक, (3) कुम्भक।
रेचक-प्राणायाम :- प्राण वायु को शरीर से बाहर निकाल कर बाहर ही जितने काल तक सुखपूर्वक रूक सके, रोके रहना और साथ-ही-साथ इस बात की भी परिक्षा करते रहना कि वह बाहर आकर कहाँ ठहरा है, कितने समय तक ठहरा है और उतने समय में स्वाभाविक प्राण की गति की कितनी संख्या होती है। यह ‘बाह्यावृति’ प्राणायाम है। इसे रेचक भी कहते हैं। क्योंकि इसमें रेचनपूर्वक प्राण को रोका जाता है। अभ्यास करते-करते यह दीर्घ (लम्बा) अर्थात् बहुत काल तक रूके रहने वाला और सूक्ष्म अर्थात् हल्का अनायास साध्य हो जाता है।
पूरक-प्राणायाम :- प्राणवायु को भीतर ले जाकर भीतर ही जितने काल तक सुखपूर्वक रूक सकें, रोके रहना और साथ-ही-साथ यह देखते रहना कि आभ्यन्तर देश में कहाँ तक जाकर प्राण रूकता है, वहाँ कितने काल तक सुखपूर्वक ठहरता है और उतने समय में प्राण की स्वाभाविक गति की कितनी संख्या कहते हैं, क्योंकि इसमें शरीर के अन्दर ले जाकर प्राण को रोका जाता है। अभ्यास बल से यह भी दीर्घ और सूक्ष्म हो जाता है।
कुम्भक-प्रणायाम :- शरीर के भीतर जाने और बाहर निकलने वाली जो प्राणों की स्वाभाविक गति है, उसे प्रयत्न पूर्वक बाहर या भीतर निकलने या ले जाने का अभ्यास न करके प्राणवायु स्वभाव से बाहर निकला हो या भीतर गया हो, जहाँ हो वहीं उसकी गति को स्तम्भित कर देना (रोकदेना) और यह देखते रहना कि प्राण किस देश में रूके हैं, कितने समय तक सुखपूर्वक रूके रहते है, इस समय में स्वाभाविक गति की कितनी संख्या होती है यह ‘स्त्मभवृत्ति’ प्रणायाम है। इसे कुम्भक प्राणायाम भी कहते हैं। अभ्यास बल से यह भी दीर्घ और सूक्ष्म होता है।
उपर्युक्त तीनों प्राणयामों के अतिरिक्त एक चौथे प्रणायाम का भी उल्लेख योग-सूत्र में है-
‘‘बाह्मभ्यन्तर विषयाक्षेपी चतुर्थ :।।’’ पा0यो0सू0- 2/51
अर्थात् बाहर और भीतर के विषयों का त्याग कर देने से अपने आप होने वाला चौथा प्राणायाम है।
बाहर और भीतर के विषयों के चिन्तन का त्याग कर देने से अर्थात् इस समय प्राण बाहर निकल रहें हैं या भीतर जा रहे हैं अथवा चल रहे हैं कि ठहरे हुये हैं इस जानकारी का त्याग करके मन को इष्टचिन्तन में लगा देने से देश, काल और संख्या के ज्ञान के बिना ही अपने-आप जो प्राणों की गति जिस किसी देश में रूक जाती है, वह चौथा प्राणायाम है।
इन चतुर्विध प्राणायामां में अनुष्ठान से अविद्यादि का क्षय होता है एवं मन धारण के योग्य हो जाता है।
(5) प्रत्याहार :- ‘‘स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार :।।’’ पा0यो0सू0- 2/54
अर्थात् अपने विषयों के सम्बन्ध से रहित होने पर इन्द्रियों का जो चित्त के स्वरूप में तदाकार-सा हो जाना है, वह प्रत्याहार है।
उक्त प्रकार के प्राणायामों का अभ्यास करते-करते मन और इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाते हैं। उसके बाद इन्द्रियों की बाह्यवृत्तियों को सब ओर से समेट कर मन में विलीन करने के अभ्यास का नाम ‘प्रत्याहार’ है। जब साधना काल में साधक इन्द्रियों के विषयों का त्याग करके चित्त को अपने ध्येय में लगाता है, उस समय जो इन्द्रियों का विषयों की ओर न जाकर चित्त में विलीन-सा हो जाना है, यह प्रत्याहार सिद्ध होने की पहचान है।
इस प्रकार चित्त के निरूद्ध हो जाने पर इन्द्रियों के निरोध हेतु अन्य कारण की अपेक्षा नहीं होती है। प्रत्याहार के अनुसरण से इन्द्रियों का उत्कृष्ट रूप से वशीकरण हो जाता है।
उपर्युक्त यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार यह पाँचो अंग योग के वहिरंग कहलाते हैं।
(6) धारणा :- ‘‘देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।।’’ पा0यो0सू0- 3/1
देश विशेष में चित्त को बाँधना (स्थिर करना) धारणा है।
नाभिचक्र, हृदय कमल आदि शरीर के भीतरी देश है और आकाश या सूर्य-चन्द्रमा आदि देवता या कोई भी मूर्ति तथा कोई भी वृत्ति का लगाने का नाम ‘धारणा’ है।
(7) ध्यान :- ‘‘तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।’’ पा0यो0सू0- 3/2
अर्थात् जिस (चित्त का जहाँ लगाया जाये) उसी में वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है। जिस ध्येय वस्तु में चित्त को लगाया जाये उसी में चित्त का एकाग्र हो जाना अर्थात् ध्येयमात्र की एक ही वृत्ति का प्रवाह चलना उसके बीच में किसी भी दूसरी वृत्ति का न उठना ‘ध्यान’ है।
(8) समाधि :- ‘‘तदेवार्थमात्रनिर्भीसं स्वरूपशून्यमिव समाधि।।’’ पा0यो0सू0- 3/3
जब ध्यान में केवल ध्येय मात्र की ही प्रतीति होती है, और चित्त का निज स्वरूप शून्य-सा हो जाता है तब वही (ध्यान ही) समाधि हो जाता है।
ध्यान करते-करते जब चित्त ध्येयाकार में परिणत हो जाता है, उसके अपने स्वरूप का अभाव सा हो जाता है, उसको ध्येय से भिन्न उपलब्धि नहीं होती, उस समय उस ध्यान का ही नाम समाधि हो जाता है। समाधि के दो भेद होते हैं-
(1) सम्प्रज्ञात समाधि (2) असम्प्रज्ञात समाधि।
सम्प्रज्ञात समाधि के चार भेद हैं- (1) वितर्कानुगत (2) विचारानुगत (3) आनन्दानुगत (4) अस्मितानुगत।
(1) वितर्कानुगत सम्प्रज्ञात समाधि :- भावना द्वारा ग्राहय रूप किसी स्थूल-विषय विराट्, महाभूत शरीर, स्थलैन्द्रिय आदि किसी वस्तु पर चित्त को स्थिर कर उसके यथार्थ स्वरूप का सम्पूर्ण विषयों सहित जो पहले कभी देखें, सुने एवं अनुमान न किये हो, साक्षात् किया जाये वह वितर्कानुगत समाधि है।
वितर्कानुगत समाधि के दो भेद हैं (1) सवितर्कानुगत (2) अवितर्कानुगत ।
सवितर्कानुगत समाधि शब्द, अर्थ एवं ज्ञान की भावना सहित होती है। अवितर्कानुगत समाधि शब्द, अर्थ एवं ज्ञान की भावना से रहित केवल अर्थमात्र होती है।
(2) विचारानुगत सम्प्रज्ञात समाधि :- जिस भावना द्वारा स्थूलभूतों के कारण पंच सूक्ष्मभूत तन्मात्राएं तथा अन्तः करण आदि का सम्पूर्ण विषयों सहित साक्षात्कार किया जाये वह विचारानुगत सम्प्रज्ञात समाधि है। यह समाधि भी दो प्रकार की होती है। (1) सविचार (2) निर्विचार।
जब शब्द स्पर्श, रूप रस गंध रूप सूक्ष्म तन्मात्राओं एवं अन्तःकरण रूप सूक्ष्म विषयों का आलम्बन बनाकर देश, काल, धर्म आदि दशाओं के साथ ध्यान होता है, तब वह सविचार सम्प्रज्ञात समाधि कहलाती है।
सविचार सम्प्रज्ञात समाधि के ही विषयां में देश-काल, धर्म इत्यादि सम्बन्ध के बिना ही, मात्र धर्मी के, स्वरूप का ज्ञान प्रदान कराने वाली भावना निर्विचार समाधि कही जाती है।
(3) आनन्दानुगतय सम्प्रज्ञात समाधि :- विचारानुगत सम्प्रज्ञात समाधि के निरन्तर अभ्यास करते रहने पर सत्वगुण की अधिकता से आनन्द स्वरूप अहंकार की प्रतीति होने लगती है, यही अवस्था आनन्दानुगत सम्प्रज्ञात समाधि कही जाती है। इस समाधि में मात्र आनन्द ही विषय होता है और ‘‘मैं सुखी हुँ’’ ‘‘मैं सुखी हुँ’’ ऐसा अनुभव होता है। इस समय कोई भी विचार अथवा ग्रहय विषय उसका विषय नहीं रहता। इसे ग्रहण समाधि कहते हैं।
जो साधक ‘सानन्द समाधि’ को ही सर्वस्व मानकर आगे नहीं बढते, उनका देह से अभ्यास छूट जाता है परन्तु स्वरूपावस्थिति नहीं होती। देह से आत्माभिमान निवृत्त हो जाने के कारण इस अवस्था को प्राप्त हुए योगी ‘विदेह’ कहलाते हैं।
(4) अस्मितानुगत सम्प्रज्ञानुगत समाधि :- आनन्दानुगत सम्प्रज्ञात समाधि के अभ्यास के कारण जिस समय अर्न्तमुखी रूप से विषयां से विमुख प्रवृत्ति होने से, बुद्धि का अपने कारण प्रकृति में विलीन होती है वह अस्मितानुगत समाधि है। इन समाधियां आलम्बन रहता है। अतः इन्हें सालम्बन समाधि कहते हैं।
इसी अस्मितानुगत समाधि से ही सूक्ष्म होने पर पुरूष एवं चित्त में भिन्नता उत्पन्नय कराने वाली वृत्ति उत्पन्न होती है। यह समाधि- अपर वैराग्य द्वारा साध्य है।
असम्प्रज्ञात समाधि :- ‘सम्प्रज्ञात समाधि’ की पराकाष्ठा में उत्पन्न विवेकख्याति में भी आत्मस्थिति का निषेध करने वाली ‘परवैराग्यवृत्ति’ नेति-नेति यह स्वरूपावस्थिति नहीं है, के अभ्यास पूर्वक असम्प्रज्ञात समाधि सिद्ध होती है। ‘योग-सूत्र’ में ‘असम्प्रज्ञात समाधि’ का लक्षण इस प्रकार विहित है-
‘‘विरामप्रत्याभ्यासपुर्व : संस्कारशेषोऽन्यः।।’’ पा0यो0सू0- 1/10
अर्थात् सभी वृत्तियों के निरोध का कारण (पर वैराग्य के अभ्यास पूर्वक, निरोध) संस्कार मात्र शेष सम्प्रज्ञात समाधि से भिन्न असम्प्रज्ञात समाधि है।
साधक का जब पर-वैराग्य की प्राप्ति हो जाती है, उस समय स्वभाव से ही चित्त संसार के पदार्थों की ओर नहीं जाता। वह उनसे अपने-आप उपरत हो जाता है उस उपरत-अवस्था की प्रतीति का नाम ही या विराम प्रत्यय है। इस उपरति की प्रतीति का अभ्यास-क्रम भी जब बन्द हो जाता है, उस समय चित्त की वृत्तियों का सर्वधा अभाव हो जाता है। केवल मात्र अन्तिम उपरत-अवस्था के संस्कारों से युक्त चित्त रहता है, फिर निरोध संस्कारों में क्रम की समाप्ति होने से वह चित्त भी अपने कारण में लीन हो जाता है। अतः प्रकृति के संयोग का अभाव हो जाने पर द्रष्टा की अपने स्वयं में स्थिति हो जाती है। इसी असम्प्रज्ञात समाधि या निर्बीज समाधि कहते हैं। इसी अवस्था को कैवल्य-अवस्था के नाम से भी जाना जाता है।