कुंडलिनी जागरण और अनुभव
कुंडलिनी शक्ति भारतीय सभ्यता और दर्शन में एक जाना पहचाना नाम है |हर साधक इसका सपना देखता है |इसे जानना चाहता है |इसे करना चाहता है |इसका कारण है की यह अथाह शक्तियों का स्वामी शक्ति है जो हर मनुष्य में विद्यमान होने पर भी करोड़ों में किसी एक को मिलती है | अब तो बहुत से लोग कहने लगे हैं कि मेरी कुंडलिनी जाग्रत है,|े कुंडलिनी बच्चों का खेल हो गई | लेकिन क्या यह सच है? यह सवाल उन्हें खुद से करना चाहिए। सच मानों तो कुंडलिनी जिसकी भी जाग्रत हो जाती है उसका संसार में रहना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि यह सामान्य घटना नहीं है। संयम और सम्यक नियमों का पालन करते हुए लगातार ध्यान करने से धीरे धीरे कुंडलिनी जाग्रत होने लगती है और जब यह जाग्रत हो जाती है तो व्यक्ति पहले जैसा नहीं रह जाता। वह दिव्य पुरुष बन जाता है।कुंडलिनी जागरण के इसी कारण अलग मार्गों में अलग नियम हैं |tantra मार्ग इसके जागरण हेतु मूलाधार को प्राथमिकता देता है जबकि योग मार्ग सहस्त्रार को |इसी लिए योग में ध्यान को और tantra में भैरवी साधना और पंचमकार को प्राथमिकता दी जाती है |यह साधना योग में भी अति दुर्लभ है और tantra में भी |अंतर इतना है योग में इसकी साधना से व्यक्ति के पतित होने का भय नहीं होता भले कुंडलिनी न जागे कुछ शक्तियां और शारीरिक आरोग्य तो मिल ही जाता है ,किन्तु tantra में इसकी साधना में पतित होने की अत्यधिक सम्भावना होती है और क्षति भी संभव होती है अतः इसे अति गोपनीय रखा जाता है |कारण यह है की योग में जिस शक्ति को जगाने और साधने में वर्षों लगते हैं tantra में वह महीनो या दिनों में हो जाता है क्योकि यहाँ ऊर्जा के शार्ट सर्किट अर्थात दो विपरीत तीबेअतम उर्जाओं को टकराकर अत्यधिक ऊर्जा उत्पन्न कर नियंत्रित किया जाता है जिससे कुछ दिनों में वह होता है जिसे योग वर्षों में साधता है |इसे ही अधिकतर नहीं संभाल पाते और पतित हो नष्ट हो जाते हैं |,इसलिए केवल कुछ योग्य गुरुओं के अतिरिक्त इसके सूत्र कोई नहीं जानता |कोई शास्त्र tantra के पूर्ण विवरण के साथ नहीं मिलता |tantra में भी कुछ यौगिक क्रियाएं की ही जाती हैं और योग में भी कुछ tantra सूत्रों का प्रयोग होता है |
कुंडलिनी एक दिव्य शक्ति है जो सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर शरीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार में स्थित है। जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक व्यक्ति सांसारिक विषयों की ओर भागता रहता है। परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो ऐसा प्रतीत होने लगता है कि कोई सर्पिलाकार तरंग है जो घूमती हुई ऊपर उठ रही है। यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है। हमारे शरीर में सात चक्र होते हैं। कुंडलिनी का एक छोर मूलाधार चक्र पर है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ लिपटा हुआ जब ऊपर की ओर गति करता है तो उसका उद्देश्य सातवें चक्र सहस्रार तक पहुंचना होता है, लेकिन यदि व्यक्ति संयम और ध्यान छोड़ देता है तो यह छोर गति करता हुआ किसी भी चक्र पर रुक सकता है।
जब कुंडलिनी जाग्रत होने लगती है तो पहले व्यक्ति को उसके मूलाधार चक्र में स्पंदन का अनुभव होने लगता है। फिर वह कुंडलिनी तेजी से ऊपर उठती है और किसी एक चक्र पर जाकर रुकती है उसके बाद फिर ऊपर उठने लग जाती है। जिस चक्र पर जाकर वह रुकती है उसको व उससे नीचे के चक्रों में स्थित नकारात्मक उर्जा को हमेशा के लिए नष्ट कर चक्र को स्वस्थ और स्वच्छ कर देती है। कुंडलिनी के जाग्रत होने पर व्यक्ति सांसारिक विषय भोगों से दूर हो जाता है और उसका रूझान आध्यात्म व रहस्य की ओर हो जाता है। कुंडलिनी जागरण से शारीरिक और मानसिक ऊर्जा बढ़ जाती है और व्यक्ति खुद में शक्ति और सिद्धि का अनुभव करने लगता है।
जब कुंडलिनी जाग्रत होने लगती है तो व्यक्ति को देवी-देवताओं के दर्शन होने लगती हैं। ॐ या हूं हूं की गर्जना सुनाई देने लगती है। आंखों के सामने पहले काला, फिर पील और बाद में नीला रंग दिखाई देना लगता है। उसे अपना शरीर हवा के गुब्बारे की तरह हल्का लगने लगता है। वह गेंद की तरह एक ही स्थान पर अप-डाउन होने लगता है। उसके गर्दन का भाग ऊंचा उठने लगता है। उसे सिर में चोटी रखने के स्थान पर अर्थात सहस्रार चक्र पर चींटियां चलने जैसा अनुभव होता है और ऐसा लगता है कि मानो कुछ है जो ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है। रीढ़ में कंपन होने लगता है। इस तरह के प्रारंभिक अनुभव होते हैं।
बहुत से लोग कहते सुने जाते हैं कि मेरी कुंडलिनी जाग्रत है, या जाग रही है। योग साधना में लगे दस में से आठ लोगों को लगता है कि उनकी कुंडलिनी जाग रही है। लेकिन ज्यादातर दावे खोखले ही होते हैं। कुछ लोग साधना करने का अभिनय करते या आधे अधूरे मन से इस मार्ग पर चलते हैं। वे भी इस तरह के अनुभवों का दावा करने लगते हैं। लेकिन कई साधकों को अनुभूति होती है, पर वह प्रतीती मायावी ही होती है। जिसकी भी कुंडलिनी जाग्रत हो जाती है, और जब भी होती है तो वह असाधारण घटना होती है। एक दायरे में साधना कर रहे योगियों को पता चल जाता है कि किसी की कुंडलिनी जागृत हुई है। उस समय योगियों को आकाश में बिजली कौंधने और मेघों के गरजने जैसी अनुभूति होती है। अनुभूति के दायरे का विस्तार इस बात पर निर्भर है कि वहां का क्षेत्र कितना बड़ा है, यानी कितने साधक साधना का अभ्यास कर रहे हैं। संयम और सम्यक नियमों का पालन करते हुए ध्यान करते रहने से धीरे धीरे कुंडलिनी जाग्रत होने लगती है और जब यह जाग्रत हो जाती है तो व्यक्ति पहले जैसा नहीं रह जाता। वह दिव्य पुरुष बन जाता है। अपने आसपास जब भी कोई कुंडलिनी जागने का दावा करता या आश्वासन देता दिखाई दे तो यकायक मान नहीं लेना चाहिए।अधिकतर तो किसी चक्र पर स्पंदन अथवा स्फुरण मात्र को ही कुंडलिनी जागरण समझने वाले होते हैं | एक सूत्र याद रखें कि अनुभव जितना भी गहन होगा, उतने ही श्रम और साधन की जरूरत महसूस करेगा।...