गीता में योग
गीता में योग की अवधारणा गीता जो कि महाभारत का एक अंग है। वह वास्तव में सम्पूर्ण योग ग्रन्थ है। गीता में योग शब्द का व्यवहार आत्मा का परमात्मा से मिलन के अर्थ में किया गया है। योग का व्यवहार गीता में विस्तृत अर्थ में किया गया है। योग-दर्शन में योग का अर्थ ‘चित्त-वृत्तियों का निरोध है’। परन्तु गीता में योग का व्यवहार ईश्वर से मिलन के अर्थ में किया गया है। गीता वह विद्या है जो आत्मा को ईश्वर से मिलाने के लिए अनुशासन तथा भिन्न-भिन्न मार्गां का उल्लेख करती है। गीता का मुख्य उपदेश योग है इसीलिए गीता को योग शास्त्र कहा जाता है। जिस प्रकार मन के तीन अंग हैं- ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक। इसीलिए इन तीनों अंगों के अनुरूप गीता में ज्ञानयोग, भक्तियोग, और कर्मयोग का समन्वय हुआ है। आत्मा बन्धन की अवस्था में चल जाती है। बन्धन का नाश योग से ही सम्भव है। योग आत्मा के बन्धन का अन्त कर उसे ईश्वर की ओर मोड़ती है। गीता में ज्ञान, कर्म और भक्ति को मोक्ष का मार्ग कहा है। इस प्रकार गीता ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग का सम्भव होने के कारण योग की त्रिवेणी कही जाती है। ज्ञानयोग :- गीता के अनुसार मानव अज्ञानवश बन्धन की अवस्था में पड़ जाता है। अज्ञान का अन्त ज्ञान से होता है इसीलिये गीता में मोक्ष पाने के लिये ज्ञान की महत्ता पर प्रकाश डालती है। गीता के अनुसार ज्ञान दो प्रकार के हैं- (1) तार्किक ज्ञान (2)आध्यात्मिक ज्ञान। तार्किक ज्ञान वस्तुओं के बाह्य रूप को देखकर उनके स्वरूप की चर्चा बुद्धि के द्वारा करता है। आध्यात्मिक ज्ञान वस्तुओं के आभास में व्याप्त सत्यता का निरूपण करने का प्रयास करता है। बौद्धिक अथवा तार्किक ज्ञान को ‘विज्ञान’ कहा जाता है। जबकि आध्यात्मिक ज्ञान को ज्ञान कहा जाता है। तार्किक ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत विद्यमान रहता है। परन्तु आध्यात्मिक ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत नष्ट हो जाता है। ज्ञान शास्त्रों के अध्ययन से होने वाला आत्मा का ज्ञान है जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त कर लेता है व सब भूतों में आत्मा को और आत्मा में सब भूतों को देखता है। वह विषयों में ईश्वर को और ईश्वर में सब को देखता है। ज्ञान की प्राप्ति के लिये मानव को अभ्यास करना पड़ता है। गीता में ज्ञान को प्राप्त करने के लिये पद्धति का प्रयोग हुआ है- (1) जो व्यक्ति ज्ञान चाहता है उसे शरीर, मन और इन्द्रियों को शुद्ध रखना पड़ता है। इन्द्रियाँ और मन स्वभावतः चंचल होते हैं जिसके फलस्वरूप वे विषयों के प्रति आसक्त हो जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि मन दूषित होता है, कर्मों के कारण अशुद्ध हो जाता है। यदि मन और इन्द्रियों को शुद्ध नहीं किया जाये तो साधक ईश्वर से मिलने से वंचित हो जाता है। क्योंकि ईश्वर अशुद्ध वस्तुओं को नहीं स्वीकार करता है। (2) मन और इन्द्रियों को उनके विषयों से हटाकर ईश्वर पर केन्द्रीभूत कर देना भी आवश्यक माना जाता हैं इस क्रिया का फल यह होता है कि मन की चंचलता नष्ट हो जाती है और वह ईश्वर के अनुशीलन में व्यस्त हो जाता है। (3) जब साधक को ज्ञान हो जाता है तब आत्मा और ईश्वर में तादात्म्य का सम्बन्ध हो जाता है। वह समझने लगता है कि आत्मा ईश्वर का अंग है। इस प्रकार की तादात्म्यता का ज्ञान इस प्रणाली का तीसरा अंग है। गीता में ज्ञान को पुष्ट करने के लिए योगाभ्यास का आदेश दिया जाता है। यद्यपि गीता योग का आदेश देती है फिर भी वह योग के भयानक परिणामों के प्रति जागरूक रहती है। ज्ञान को अपनाने के लिये इन्द्रियों के उन्मूलन का आदेश नहीं दिया गया है। ज्ञान से अमृत की प्राप्ति होती है। कर्मों की अपवित्रता का नाश होता है और व्यक्ति सदा के लिये ईश्वरमय हो जाता है, ज्ञानयोग की महत्ता बताते हुए गीता में कहा गया है, ‘‘जो ज्ञाता है वह हमारे सभी भक्तों में श्रेष्ठ है।’’ जो हमें जानता है वह हमारी आराधना भी करता है। ‘‘आसक्ति से रहित ज्ञान में स्थिर हुए चित्त वाले यज्ञ के लिये आचरण करते हुए सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।’’ इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसन्देह (कुछ भी) नहीं है। भक्तियोग :- भक्तियोग मानव मन के संवेगात्मक पक्ष का पुष्ट करता है। भक्ति ‘भज’ से बना है। ‘भज‘ का अर्थ है ईश्वर सेवा। इसीलिये भक्ति का अर्थ अपने को ईश्वर के प्रति समर्पण करना कहा जाता है। भक्ति के लिए ईश्वर में व्यक्तित्व का रहना आवश्यक है। निर्गुण और निराकार ईश्वर हमारी पुकार को सुनने में असमर्थ रहता है। गीता में ईश्वर को प्रेम के रूप में चित्रण किया गया है। जो ईश्वर के प्रति प्रेम, आत्म-समर्पण, भक्ति रखता है उसे ईश्वर प्यार करता है। भक्त जो कुछ शुद्ध मन से ईश्वर के प्रति अर्पण करता है, उसे ईश्वर स्वीकार करता है। गीता में भगवान ने स्वयं कहा है- ‘‘पत्र, पुष्प, फल, जल इत्यादि जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से अर्पण करता है। उस भक्तजन का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ सब कुछ मैं बड़़े प्रेम से खाता हूँ।’’ गीता के चार प्रकार के भक्तों को स्वीकारा गया है- भगवान ने स्वयं कहा है। ‘‘चतुर्विद्या भजन्ते माँ जनाः’’ अर्थात् चार प्रकार के भक्त जन मुझे भजते हैं। यह चार प्रकार के भक्त इस प्रकार हैं-(1) आर्त्त (2) जिज्ञासु (3) अर्यार्थी (4) ज्ञानी। रोग से पीड़ित व्यक्ति अपने रोग निवारण हेतु ईश्वर भक्ति करता हैं ऐसे भक्त को आर्त्त भक्त कहा जाता है। जो भक्त ज्ञान पाने की इच्छा रखते हैं वह जिज्ञासु कहलाते हैं। अर्यार्थी ऐसे भक्त को कहा गया है जो ईश्वर की वन्दना द्रव्यादि अर्थात् सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति के उद्देश्य से करते हैं। ज्ञानी उस भक्त को कहा गया है जो परमेश्वर का ज्ञान पाकर कृतार्थ हो जाता है। ज्ञानी भक्त निष्काम बुद्धि से भक्ति करते हैं। जबकि अन्य तीन प्रकार के भक्त सकाम भाव से भक्ति करते हैं। गीता में बार-बार ज्ञानी भक्त की महिमा की चर्चा हुई है। वह भक्तों की कोटि में श्रेष्ठतम् है भगवान ने कहा है कि-‘‘ज्ञानी विशिष्यते’’ अर्थात् ज्ञानी भक्त अति उत्तम है। ‘‘ज्ञानिनः अहम् अत्यर्थम् प्रियः च सः मम प्रियः’’ ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हुँ और वह ज्ञानी मेरे को (अत्यन्त) प्रिय है। ‘‘ज्ञानी त्वात्मैव’’ अर्थात् ज्ञानी तो मेरा स्वरूप ही है। ‘‘सः महात्मा सुदुर्लभः’’ अर्थात् आत्मा अति दुर्लभ है। गीता में ज्ञान और भक्ति में निकटता का सम्बन्ध दर्शाया गया है। यहाँ ज्ञान में ही भक्ति तथा भक्ति में ही ज्ञान को गूँथ दिया गया है। इसके कारण यहाँ ज्ञान और भक्ति के परस्पर विरोध नहीं दिखता है। परमेश्वर के ज्ञान के साथ ही प्रेम रस की अनुभूति होने लगती है। कर्मयोग :- गीता का मुख्य उपदेश कर्मयोग कहा जा सकता है। गीता की रचना निष्क्रिय और किंकर्त्तव्यविमूढ़ अर्जुन को कर्म के प्रति मोहित कराने के उद्देश्य से की गई। यही कारण है कि गीता में श्री कृष्ण निरन्तर कर्म करने का आदेश देते हैं। अतः गीता का मुख्य विषय कर्म-योग ही कहा जा सकता है। कर्म का अर्थ आचरण है। उचित कर्म से ईश्वर को अपनाया जा सकता है। ईश्वर स्वयं कर्मठ है। इसीलिये ईश्वर तक पहुँचने के लिये कर्म-योग आवश्यक है। शुभ कर्म वह है जो ईश्वर की एकता का ज्ञान दे। अशुभ कर्म वह है जिसका आधार अवास्तविक वस्तु है। गीता के समय शुद्धाचरण के अनेक विचार प्रचलित थे। वैदिक-कर्म के अनुसार मानव वैदिक कर्मां के द्वारा अपने आचरण को शुद्ध कर सकता है। उपनिषद् में कर्म को सत्य प्राप्ति में सहायक कहा गया है। गीता में सत्य की प्राप्ति के लिए कर्म को करने का आदेश दिया गया है। वह कर्म जो असत्य तथा अधर्म की प्राप्ति के लिए किया जाता है, सफल कर्म नहीं कहा जा सकता है। कर्म को अन्धविश्वास और अज्ञान वश नहीं करना चाहिए कर्म को इसके विपरीत ज्ञान और विश्वास के साथ करना चाहिए गीता में मानव को कर्म करने का आदेश दिया गया हैं। अचेतन वस्तुएँ अपना कार्य सम्पादित करते हैं अतः कर्म से विमुख होना महान् मूर्खता है। एक व्यक्ति को कर्म के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। परन्तु उसे कर्म के फलों की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। मानव की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि वह कर्म के परिणामों के सम्बन्ध में चिन्तनशील रहता है। यदि कर्म से अशुभ परिणाम पाने की आशंका रहती है तब वह कर्म का त्याग कर देता है। इसीलिये गीता में निष्काम कर्म का अर्थ है, कर्म को बिना किसी फल की अभिलाषा से करना। जो कर्मफल को छोड़ देता है वही वास्तविक त्यागी है इसीलिये भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि- ‘‘कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।’’7 अर्थात् कर्तव्य-कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मफल के हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो। गीता का प्रतिपाद्य विषय ही निष्काम कर्म-योग है, जिसे कर्म-योग की भी संज्ञा दी जाती है। भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं कि आसक्ति रहित होकर कर्म करना चाहिए भले ही कार्य में सफलता मिले या असफलता दोनां में समता की जो मनोवृत्ति है उसे ही कर्म-योग कहते हैं- ‘‘योगस्थः कुरू कर्माणि संगत्यक्त्वा धनन्जय। सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वंयोग उच्यते।।’’8 अर्थात् हे धनन्जय! तू आसक्ति को त्याग करके सिद्धि-असिद्धि में सम् होकर योग में स्थित हुआ कर्मां को कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है। फिर आगे कहते हैं कि- ‘‘बुद्धियुक्तों जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।’’9 अर्थात् बुद्धि (समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप दोनां का त्याग कर देता है। अतः तू योग-(समता) में लग जा, क्योंकि योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् समत्व बुद्धि रूप योग ही कर्मों में चतुरता है अर्थात् कर्म बन्धन से छूटने का उपाय है। इसीलिए अर्जुन को समत्व बुद्धि-योग के लिए ही चेष्टा करने का आदेश दिया गया है। ‘‘हे अर्जुन! जो पुरूष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ कर्मेन्द्रियों से कर्मयोग का आचराण करता है वह श्रेष्ठ है।’’ अर्जुन के यह पूछने पर कि कर्मां के सन्यास और निष्काम कर्मयोग में कौन सा उत्तम और कल्याणी है। इस पर भगवान श्री कृष्ण कहते हैं- ‘‘सन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ। तयोस्तु कर्मसन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।’’10 अर्थात् कर्मों का सन्यास और निष्काम कर्म योग यह दोनां ही परम् कल्याण करने वाले हैं परन्तु उन दोनों में भी कर्मां के सन्यास से निष्काम कर्मयोग श्रेष्ठ है। निष्काम कर्मयोग की महिमा का उल्लेख गीता में इस प्रकार किया है- ‘‘सन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः। योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।।’’11 परन्तु हे महाबाहो!कर्मयोग के बिना सन्यास सिद्ध होना कठिन है। मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। गीता की रचना यह प्रमाणित करती है कि सम्पूर्ण गीता कर्त्तव्य के लिए मानव को प्रेरित करती है। परन्तु निष्काम कर्म भाव अर्थात् फल प्राप्ति की भावना का त्याग करके करना ही परमावश्यक है। अर्थात् गीता कर्मां के त्याग के बदले कर्म में त्याग का उपदेश देती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कर्मयोग ही गीता का मुख्य उपदेश है। सकाम कर्म मानव को बनधन की ओर ले जाते हैं परन्तु निष्काम कर्म करके इसके विपरीत मानव को स्थितप्रज्ञ की अवस्था को प्राप्त करने में सक्षम सिद्ध होते हैं। गीता में बार-बार दोहराया गया है कि कर्म से सन्यास न लेकर कर्म के फलों से सन्यास लेना चाहिए। कर्म का प्रेरक फल नहीं होना चाहिए। यद्यपि गीता कर्मफल के त्याग का आदेश देती है फिर भी गीता का लक्ष्य त्याग या सन्यास नहीं है। इन्द्रियों का दमन करने का आदेश नहीं दिया गया है बल्कि उन्हें विवेक के मार्ग पर नियन्त्रित करने का आदेश दिया गया है। निष्काम कर्म की शिक्षा गीता की अनमोल देन है। निष्काम कर्म का उपदेश पाकर अर्जुन युद्ध करने के लिये तत्पर हो गये। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि गीता में ज्ञान, कर्म और भक्ति का अनुपम समन्वय है। ईश्वर को ज्ञान से भी अपनाया जा सकता है, कर्म से भी अपनाया जा सकता है तथा भक्ति से भी अपनाया जा सकता है। जिस व्यक्ति को जो मार्ग सुलभ हो वह उसी मार्ग को चुनकर ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। ईश्वर में सत्, चित् और आनन्द है। जो ईश्वर को ज्ञान से प्राप्त करता है उसके लिये वह प्रकाश है, जो ईश्वर को कर्म के द्वारा पाना चाहते हैं उसके लिये वह शुभ है, जो भावना से अपनाना चाहते हैं उसके लिए वह प्रेम है। इस प्रकार तीनों मार्गों से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। जिसे विभिन्न रास्तों से एक लक्ष्य पर पहुँचा जा सकता है उसी प्रकार विभिन्न मार्गों से ईश्वर की प्राप्ति सम्भव है।