योग सिद्धियाँ

योग सिद्धियाँ

योगसाधना से प्राप्त सिद्धियाँ योग साधना के मार्ग में भिन्न-भिन्न विषयों पर संयम करने से तत्सम्बन्धित अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, वे सिद्धियाँ साधक द्वारा त्याज्य है, इस सत्य का बोध कराने के लिये सूत्रकार ने विभूति पाद में इन सिद्धियों का वर्णन करके अन्त में उन्हें हेय बताया है। उनमें से कुछ महत्वपूर्ण सिद्धियों का परिचय यह दिया जा रहा है। विषयों के ग्राह्य, ग्रहण एवं ग्रहीतृ रूप होने से, उनसे सम्बद्ध संयम की सिद्धियाँ भी तीन प्रकार की होती हैं। जो इस प्रकार हैं। (क) ग्राह्य संयम जनित सिद्धियाँ :- ‘‘स्थूलस्वरूपसूक्ष्मान्वयार्थवत्त्वसंयमाद् भूतजयः।।़70 अर्थात् (भूतों की) स्थूल, स्वरूप सूक्ष्म, अन्वय, अर्थवत्त्व-इन पाँच प्रकार की अवस्थाओं में संयम करने से (योगी को) पाँचों भूतों पर विजय प्राप्त हो जाती है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश-यह पाँच भूत हैं। इनमें से प्रत्येक की पाँच अवस्थायें होती हैं। (1) स्थूला वस्था :- जिस रूप में हम इनको अपनी इन्द्रियों द्वारा अनुभव कर रहे हैं जिनको गीता में इन्द्रियगोचर नाम दिया है, वे इन्द्रियां द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव से आने वाले शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध नाम वाले पाँचों विषय इनकी स्थूल अवस्था है। (2) स्वरूपावस्था :- इनके जो लक्षण है, वह इनकी स्वरूपावस्था है जैसे-पृथ्वी की मूर्ति, जल का गीलापन, अग्नि की उष्णता और प्रकाश, वायु की गति और कम्पन, आकाश का अवकाश-यह इनकी स्वरूपावस्था है, क्योंकि इन्हीं से इनके भिन्न-भिन्न सत्ता का अनुभव होता है। (3) सूक्ष्मावस्था :- इनकी जो कारण अवस्था है, जिनको तन्मात्रा और सूक्ष्म महाभूत भी कहते हैं वह इनकी सूक्ष्म-अवस्था है। जैसे-पृथ्वी की गन्धतन्मात्रा, जल की रसतन्मात्रा, अग्नि की रूपतन्मात्रा, वायु की स्पर्शतन्मात्रा और आकाश की शब्दतन्मात्रा। (4) अन्वय-अवस्था :- पाँचों भूतों में वे तीनों गुणों का स्वभाव यानि प्रकाश, क्रिया और स्थिति व्याप्त है, वह इनकी अन्वय अवस्था है। (5) अर्थवत्त्व-अवस्था :- यह पाँचों भूत पुरूष के भोग और अपवर्ग के लिए है। यही इनकी अर्थवत्त्व (प्रयोजनता) अवस्था है। इन पंचभूतों पर अधिकार होने निम्न सिद्धियाँ प्राप्त होती है- ‘‘ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसम्पत्तद्धर्मानभिधाश्य।।’’71 उससे (भूत जप से) अणमादि आठ सिद्धियों का प्रर्दुभाव कायासम्पत और उनप भूतों से धर्म में बाधा न होना - ( ये तीनों होतें है)। 1. ऊपर वर्णित आठ सिद्धियां इस प्रकार हैं- (1) अणिमा - शरीर को सूक्ष्म कर लेना। (2) लघिमा - शरीर को हल्का कर लेना। (3) महिमा - शरीर को बड़ा कर लेना। (4) प्राप्ति - जिस पदार्थ को चोंह उसे प्राप्त कर लेना। ये सिद्धियां भूतों में संयम प्राप्त करने से होती है। (5) प्राकाम्य - बिना रूकावट के इच्छा पूर्ण होना। इन पाँचों भूतो के स्वरूप में संयम करने से सिद्धि होती हैं। (6) वाशित्व - पाँच भूतों और भौतिक पदार्थों को वश में कर लेना। यह भूतों के सूक्ष्म रूप में संयम करनें से होती है। (7) ईश्वत्व - भूत भौतिक पदार्थों के उत्पत्ति-विनाश का सामर्थय पर सिद्धि अन्वय में संयम करने से प्राप्त से प्राप्त होती है। (8) कामवासित्व - प्रत्येक संकल्प का पूरा हो जाना। पर सिद्धि अर्थवत्त्व में संयम करने से प्राप्त होती है। (2) कायसम्पत्त - शरीर की सम्पदा। इसका वर्णन अग्रलिखित सूत्र में है। (3) तद्धर्मानभिघात - भूतों के धर्मां में वाधा न होना। इन पाँचों भूतों के कार्य योगी के विरूद्ध रूकावट नहीं डालते। ‘‘रूपलावण्यबलवज्रसंहननत्वानि कायसम्पत्।।’’72 रूप, लावण्य, बल, वज्र की-सी बनावट शरीर की सम्पदा कहलाती है। (प) रूप - मुख की आकृति का अच्छा एवं दर्शनीय होना। (पप) लावण्य - सारें अंगो में कान्ती का होना। (पपप) बल - बल का अधिक होना। (पअ) वज्रसंहननत्वानि - प्रत्येक अंग का वज्र के समान दृढ़ और पृष्ट होना। यह कायसम्पत कहलाती है। (ख) ग्रहण संयम जनित सिद्धियाँ :- ‘‘ग्रहणस्वरूपस्मितान्वयार्थवत्त्वसंयमादिन्द्रियजयः।।’’73 ग्रहण, स्वरूप, अस्मिता, अन्वय, अर्थतत्व में संयम करने से इन्द्रिय जय होता है। इन्द्रियों के निम्न पाँच रूप है। इन पाँच रूपों में क्रम से साक्षात्पर्यन्त संयम करनें से इन्द्रियां-जय-सामार्थ्य प्राप्त होती है- (1) ग्रहण - इन्द्रियों की विषयाभिमुखी वृत्ति ग्रहण कहलाती है। (2) स्वरूप - सामान्य रूप से इन्द्रियों का प्रकाशतत्व जैसे नेत्रत्व आदि स्वरूप कहलाता है। (3) अस्मिता - इन्द्रियों का कारण अहंकार, जिसका इन्द्रियाँ विशेष परिणाम है। (4) अन्वय - सत्त्व, रजस, और तमस तीनों गुण जों अपने प्रकाश, क्रिया स्थिति धर्म से इन्द्रियों में अन्वयीभाव से अनुगत है। (5) अर्थवत्त्व - इनका प्रयोजन पुरूष को भोग-अपवर्ग दिलाना। इस इन्द्रियजय से अधोलिखित सिद्धियाँ प्राप्त होती है- ‘‘ततो मनोजवित्वं विकरणभावः प्रधान जयश्च।।’’74 उससे (इन्द्रिय जप से मनोजवित्व, विकरणभाव और प्रधान का जप होता है।) उपयुक्त इन्द्रियों जप से निम्न फल प्राप्त होते हैं- (1) मनोजवित्व :- मन के समान शरीर का वेग वाला होना (ग्रहण के संयम से)। (2) विकरण भाव :- शरीर की अपेक्षा के बिना इन्द्रियों का वृत्ति लाभ अर्थात् बिना शरीर की परवाह के इन्द्रियों में काम करने की शक्ति आ जाना। दूर के और बाहर के अर्थों को जान लेना ( स्वरूप में संयम करने से)। (3) प्रधान जय :- प्रकृति के सभी विकारों का वशीकार (अस्मिता, अन्वय, और अर्थवत्त्व संयम से)। (ग) ग्रहतृ संयम जनित सिद्धियाँ :- ‘‘संत्त्वपुरूषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातत्वंच।।’’75 इस सूत्र से ज्ञान होता है कि चित्त एवं पुरूष के भेद ज्ञान कराने वाली बुद्धि के सात्त्विक परिणाम में संयम करने से योगी में सभी भावों का अधिष्ठातृत्व एवं सर्वज्ञानतृत्व की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। इसे ‘विशोकासिद्धि’ कहते हैं, क्योंकि इसकी प्राप्ति योगी क्लेश बन्धनों के क्षीण हो जाने पर शोक रहित होकर बिहार करता है। इस सिद्धि में भी वैराग्य से कैवल्य की सिद्धि होती है। उपर्युक्त सिद्धियों के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के संयमों के फलस्वरूप अन्तर्हित होने की शक्ति, पर चित्त का ज्ञान, मृत्युकाल का ज्ञान, भुवनज्ञान, ताराव्यूह ज्ञान, नक्षत्रज्ञान, कायव्यूह ज्ञान सिद्ध पुरूषों के दुष्टत्त्व, प्रातिभश्रावण, वेदना-आस्वावार्ता आदि सिद्धियाँ भी वर्णित है। यह सिद्धियाँ समाधि में बाधक हैं अतः इनके प्रतिआसक्त न होकर कैवल्य की सिद्धि के लिए ही योगी को प्रयत्नशील रहना चाहिए, ऐसा सूत्रकार का अभिमत है। यह सिद्धियाँ जितेन्द्रिय पुरूष को ही प्राप्त होती है। योग शास्त्र में यह तीनों सिद्धियाँ ‘मधु प्रतीका’ कहलाती है क्योंकि इन सिद्धियों के प्राप्त होने पर योगी प्र्रत्येक सिद्धि में मधु समान स्वाद प्रतीत होता है अथवा योग से उत्पन्न ऋतुम्भरा प्रज्ञा का नाम ‘मधु’ है, उस मधु का प्रतीक अर्थात् कारण जिससे प्रत्यक्ष किया जाये, वह मधु प्रतीक है।