वेदों मे योगांगों का स्वरूप
वेदों मे योगांगों का स्वरूप:-
वेदों के परिशीलन से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि पात´्जल योगदर्शन की भाँति योगांगों का संकलित स्वरूप वेदों मंे प्रतिपादित नहीं किया गया हैै। अथर्ववेदीय मन्त्र में प्रयुक्त ‘‘अष्टधा’’, ‘‘अष्टायोगेः’’ पदों का अर्थ भाष्यकार क्षमकरणदास त्रिवेदी ने पात´्जल-योग में निर्दिष्ट यम-नियम आदि अष्ट योगांगों को ग्रहण किया है।
परवर्तीकाल में योगाभ्यासियों ने योग पद्धतियों का मूल वैदिक संहिताओं में खोजने का प्रयास भी किया। उसी सारणी में वेद विहित योगांगो को महर्षि पत´्जलि ने योगशास्त्र ने यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्यहार, धारणा, ध्यान, समाधि, इन अष्टांगो को सन्निविष्ट किया। योगत्त्वोपनिष्ट् ने अष्ट योगांगो का ही परिगणन किया है। अमृतनादोपनिषद् ने यम नियम छोड़कर शेष छः अंगो को स्वीकार किया है यहाँ श्रुति एवं स्मृति की योगशास्त्र सम्मत अष्टांगो का अनुशीलन वैदिक संहिताओं के परिप्रेक्ष्य पर प्रस्तुत किया जा रहा है।
(1) यम:-
वेदों में पांच यमांे का परिगणन किसी एक मन्त्र या सूक्ति में एकत्रित नहीं मिलता, वरन प्रकरणानुसार यमों के स्वरूपों का ज्ञान होता है। महर्षि पंत´्जलि ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह इन पाँच साधनों को यम की संज्ञा दी है। परवर्ती काल के योगविषयक ग्रन्थों में यमों की मान्यता में भी विभेद पाया गया है। पाराशर संहिता मंे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, क्षमा, धृति, ( धैर्य ), दया, सरलता, मिताहार तथा पवित्रता इन दश यमों को स्वीकार किया है। भागवत में स्वल्पभेद से बारह यमों का उल्लेख किया है। हम यहाँ योगांगो के विभेद को महत्व न देकर वेदों में वर्णित पत´्जलि-प्रोक्त अष्टांगो की विवेचना करेंगें।
(१) अहिंसा:-
मानव जीवन के साथ ही दवी और आसुरी वृत्तियांे का संघर्ष सर्गारम्भ से चला आ रहा है। आसुरी वृत्तियों के वशीसूत होकर मनुष्य अन्य प्राणियों को कष्ट देने के लिए सन्नद्ध होता है तो उस वृत्ति का नाम हिंसा है। परन्तु जब साधक आसुरी वृत्तियों पर विजय पा लेता है तब उसके अन्दर देवी वृत्तियों की स्थापना हो जाती है इन्हीं दैवी वृत्तियों की जननी, एवं पोषिका वृत्ति अहिंसा है।
श्रुति भगवती साधक को कल्याण-भावना की शिक्षा देती है कि सोम स्वरूप परमेश्वर को चाहने वाले साधकों। तुम किसी को हिंसा मत करो हिंसा न करने का हेतु बताते हुए आगे कहा है कि ‘‘हिंसक वृत्ति वाला जो व्यक्ति मोक्ष रूपी अनुपम संपदा को कदापि नहीं पा सकता। इसके विपरीत अन्याय-अनीति से स्वार्थवश किसी की हिंसा नहीं करते वही धर्मात्मा शक्तिशाली होकर निर्भरता से विजय पाते है।’’ अतः वेद का संदेश है कि योगाभिलाषी अहिंसा का पालन करें अन्य राज पुरूष आदि की रक्षा करते हुये अहिंसा वृत्ति का आचरण करंे।
(२) सत्य:-
जैसा ज्ञान आत्मा में वर्तमान है वैसा मन मंे तथा जैसा मन में है वैसा वाणी से कहना सत्य है, यथार्थ है। जब कभी सत्यासत्य के निर्णय में विवाद हो जाए दोनों पक्ष अपने को सत्य कहते हुए स्पर्धा करते हों, तब वेद इसमें सत्य की पहचान बताता हैै-
सत्य वह है जिसे विद्वान सहज ही समझ लें। सत्य सीधे सरल स्वभाव से कहा जाता है। यदि तत्काल सत्यासत्य का निर्णय न हो सके तो परिणाम से निर्णय हो जाता है- अर्थात् सत्य की स्वयं परमात्मा रक्षा करता है और असत्य का विनाश कर देता है। सत्य का लौकिक परिणाम यह है कि जिसमें लोको अथवा प्राणियों का अत्याधिक हित होता है, वही सत्य का परिणाम है।
(३) अस्तेय:-
यमों मे तीसरा स्थान पर अस्तेय है। स्तेय का अर्थ है स्वामी की बिना आज्ञा के अनधिकृत पदार्थ को ग्रहण कर लेना। और मन, वचन, कर्म से इस प्रवृत्ति का त्याग करना अस्तेय है। वैदिक संहिताओं में स्तेय-कर्म की निन्दा एवं अस्तेय-परिग्रहण की विवेचना मिलती है।
वेदों मे स्तेय-कर्म को नीच कर्म बताते हुये अपराधी को कारागार में डालने तथा शारीरिक दण्ड देने का आदेश दिया है। यजुर्वेद में चालीसवें अध्याय के प्रथम यन्त्र में कहा गया है कि ईश्वरोपासना में सर्वप्रथम ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करें। द्वितीय, ईश्वर को सर्वत्र कण-कण में विद्यमान समझें, तृतीय जो कुछ ईश्वर ने भोग सामग्री-प्रदान की है उसका त्याग पूर्वक भोग करें। चतुर्थ, कभी किसी के धन का लालच या लोभ न करें। इस श्रुति वचन के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वेदों में चोरी एवं लालची प्रवृत्ति का निषेध किया गया है
(४) ब्रह्मचर्य:-
वैदिक सहिंताओं में ब्रह्मचर्य-विषयक समस्त पहलुओं पर प्रकाश डालने वाले मन्त्र मिलते हैं।
वेद कहता है कि योगी ब्रह्मचर्य, वेदाध्ययन और इन्द्रियदमन रूप तप से मृत्यु के कारणों को दूर करते हैं। (इन्द्र) परमात्मा ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्यव्रती विद्वानों को ही मुक्तिरूपी परम सुख प्रदान करता है।
ब्रह्मचर्य सर्वप्रेरक-सर्वशक्तिमान परमात्मा के गुण प्रकट करके संसार में ज्ञान और वृद्धिकारक गुणों कांे बढ़ाकर सब को मोक्ष-सुख का अधिकारी बनाता है।
(५) अपरिग्रह:-
विषयों के संग्रह करने में उनके रक्षण और नाश से सर्वत्र हिंसा रूप दोष को देखकर स्वीकार न करना अपरिग्रह है। वेद में उपासक द्वारा इन्द्रियों के विषयों मे न जाने की जो प्रार्थना की गई है वह अपरिग्रह का प्रमुख पहलू है उपासक कहता है ‘हे प्रभो। विषयों का आहरण करने वाली मेरी इन्द्रियाँ विषय रूप शत्रुओं की विनाशक हों। इन्द्रियों का सदुपयोग करने वाले कर्मशील व्यक्तियों में मेरी इन्द्रियाँ वश्य होकर सुख देने वाली हों।
(2) नियम:-
यजुर्वेदीय मन्त्र के द्वारा महर्षि दयानन्द ने योगी को शौच-सन्तोष आदि योग के नियमों से संयुक्त होना बताया है। सामवेदीय ऋचा में ‘दश’ पद का तात्पर्य भाष्यकार ने पाँच यम पाँच नियमों से लिया है। वैदिक मतानुसार पाँच प्रकार के नियमो के लक्षण संहिताओं में मिलते है। जिसका उल्लेख पत´्जलि ने योग-शास्त्र में किया है- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्राणिधान। इनका क्रमशः वैदिक स्वरूप यहाँ प्रस्तुत है।
(१) शौच:-
शौच का अर्थ है पवित्रता। सामवेदीय ऋचा द्वारा उपासकों को शुद्धि हेतु प्ररित किया गया है- हे उपासक। तुम अपने आपको पवित्र करो, जिससे तुम बल की प्राप्ति तथा प्रगति के लिए, बलों के दाता परमेश्वर को सर्वभूत मैत्री के लिए अपने पापों का स्वयं निवारण करने के लिए शान्तिदायक परमेश्वर को प्राप्त कर सकें।
ऋग्वेदीय मन्त्र भी प्रेरित करता है- हे योगयज्ञ के लिए तत्पर साधको। आप लोग मृत्यु के साधारण पद को हटाते हुए, लम्बी आयु को धारण करते हुए, सन्तान और धन से शुद्ध एवं पवित्र होओ।
शुद्धि को दो भागो में विभक्त किया जा सकता है-
(क) बाह्य शुद्धि (ख) आन्तरिक शुद्धि
(२) सन्तोष:-
सन्तोष पद का अर्थ है- सम्यक् प्रकार से तुष्टि एवं प्राप्ति, अर्थात् शरीर से पूर्ण पुरूषार्थ द्वारा प्राप्त धन से अधिक की लालसा न करना, न्यूनाधिक की प्राप्ति पर शोक और हर्ष न करना।
सन्तोेेेेेष के लिए वेद का वह आदेश पालनीय है- कि सन्तोष बुद्धि उत्पन्न करने के लिए त्यागपुर्वक भोग करो, किसी के धन की लालसा मत करो।
सन्तोष पूर्वक सुखप्राप्ति की पुष्टि इस प्रकार की गई है- ‘जो कृषक परिश्रम पूर्वक बैलों से हल चलाकर भूमि जोतते हैं, बोते हैं, वे सन्तुष्ट रहते हुए अन्न पैदा कर सुखों का प्राप्त होते हैं। महर्षि पंतजलि ने वैद्धिक सिद्धान्त के अनुसार संतोष का फल ‘उत्तम-सुख’ की प्राप्ति बताया गया है।
(३) तप:-
तप का तात्पर्य है कि जिस प्रकार अश्व-विद्या में कुशल सारथि चन्चल घोडो़ं को साधता है उसी प्रकार शरीर, प्राण, इन्द्रियों और मन को उचित रीति और अभ्यास से वशीकार करने को तप कहते हैं। वैदिक संहिताओं में तप का निरूपण विस्तृत रूप से व्याख्यात है।
सर्गारम्भ में ऋत-सत्य के अनन्तर तप ही उत्पन्न हुआ। बृहत् सत्य, उग्रऋत, दीक्षा, तप, ब्रह्म एवं यज्ञ पृथिवी को धारण करतें हैं। इस प्रकार तप का महत्व वेदों में विविध स्वरूपों में वर्णित है। अतः उपासकोें के लिए तप का अनुष्ठान अपरिहार्य है।
(४) स्वाध्याय:-
स्वाध्याय का अर्थ है ‘अपना अध्ययन’। साथ ही इसमें वेद-शास्त्रों का अध्ययन भी आता है। स्वाध्याय में प्रवचन भी आता है।
‘‘योगयज्ञ से स्वाध्याय की सफलता एवं समर्थता होती है तथा स्वाध्याय से योग-साधना का मार्ग प्रशस्त होता है।
वैदिक स्वाध्याय-यज्ञ द्वारा भक्तिरस का सर्जन तथा परमेश्वर गुणों का धारण प्रवचन रूपवृद्धि करने से वेदवाणियाँ साधक को परमात्मा के अधिमुख कर देती हैं। स्वाध्याय से जीवन का मार्ग प्रशस्त होता है। जैसे गौएं रँभाती हुयी अपने-अपने मार्ग को पहचान लेती है।
(५) ईश्वर-प्रणिधान:-
ईश्वर के प्रति समर्पण भाव ईश्वर-प्रणिधान है। ऋग्वेद में लिखा है कि तेजस्वी परमेश्वर प्रत्येक कार्य में शान्तिसुख देने वाला तथा सत्य नियमों का पालन करता है इसीलिए प्रत्येक का पूज्य है। साधक के अन्दर जिस समय वह दैवीभाव जाग्रत करता है, उस समय उपासक प्रभु को जान जाता है और मन से उसका संगतिकरण करता है।
(3) आसन:-
आसन तीसरा योगांग साधक का स्थिरता से किसी एक स्थिति में बैठना आसन है जिसमें किसी प्रकार का कोई कष्ट न हो योगदर्शन में भी स्थिरता से सुखपूर्वक बैठना ‘आसन’ कहा है।
ऋग्वेद के अनुसार साधक आसन सिद्ध होने पर अपनी मनःस्थिति को अभिव्यक्त करता है कि आसन पर बैठे हुए मुझ पर (मेरे मन पर)(ऋत) सत्य साक्षात्कार की कामनाएं आरोहण करने लगी हैं, तब हृदय के प्रति उन कामनाओं को ऐसे कहता हूँ जैसे बालक को उसके अन्तरंगमित्र बुलाते हैं।
(4) प्राणायाम:-
सामवेद में प्राणायाम के आध्यात्मिक लाभों का वर्णन है कि ‘‘वेदों द्वारा श्रवण-मनन करने वाले प्राणायाम के अभ्यासियों में और द्युलोक के नक्षत्र समूह में वह परमात्मा विशेषरूप से चमकता है।’’
प्राण-संयमी योगी शरीर-रथ द्वारा भवसागर तैरने का ज्ञान प्राप्त करता है। प्राणायाम के अनवरत अभ्यास स्वयं ओम जप से परमात्म-प्रत्यक्ष करने में समर्थ होता है। प्राणायाम-अभ्यासियों के लिए परमात्मा आनन्द स्वरूप मंें अत्यन्त स्वादु है प्रतिफल मंे ऐसे उपासकों को परमात्मा आध्यात्मिक सम्पत्तियाँ प्रदान करता है।
(5) प्रत्याहार:-
इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर अन्तर्मुख करना ही प्रत्याहार कहलाता है।
सामवेदीय ऋचाओं में प्रत्याहार की उपयोगिता का परिशीलन स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है ‘साधना के मार्ग पर अग्रसर उपासक प्रत्याहार की साधना से सम्पन्न होकर योग की साधनाओं से नवोत्पन्न होता हुआ, वन के पेट में (मध्य में) आसन जमाकर अपने आपको पवित्र करता हुआ, प्रभु का आह्वान करता है। पन्चकोशों में अपने आपको पूर्णतया पवित्र करता हुआ और प्रत्याहार साधना द्वारा इन्द्रियों को विषयों से हटाता हुआ उपासक दीप्तिमान हो जाता है और वेद वाणियों में वर्णित नवीन वस्त्रों को धारण कर लेता है।
(6) धारणा:-
चित्त को आभ्यान्तर या बाह्य किसी एक स्थान में बाँधना धारणा है।’
यजुर्वेद में धारणा के बारे में उल्लेख है कि ध्यान करने वाले विद्वान। लोग यथायोग्य विभाग से नाड़ियों में अपने परमेश्वर की धारणा करते हैं; जो योग युक्त कर्मों में तत्पर रहते हुए, ज्ञान एवम् आनन्द को फैलाते हुये विद्वानों के मध्य प्रशंसा को पाकर परमानन्द के भागी होते हैं।
यजुर्वेदीय अन्य मन्त्र में संकेत मिलता है कि उत्साह पूर्वक हृदय, प्राण तथा बुद्धि से इन्द्रियों के द्वारा परमेश्वर को सम्यक् धारण किया जाता है अर्थात परमात्मा की धारणा की जाती है। इस धारणा शक्ति को बढ़ाकर साधक प्राचीन ऋषियों के समान मोक्ष पद को प्राप्त होते हैं।
(7) ध्यान:-
‘धारण किये गये स्थान पर वृत्तियों के प्रवाह का एकरस हो जाना ध्यान है।’
ऋग्वेद में ध्यान की पद्धति का वर्णन इस प्रकार है- ‘नदी, नद आदि जल जैसे समुद्र में समा जाते हैं वैसे ही परमेश्वर में ध्यान करने वाले अपनी इन्द्रियों को समेटकर परमात्मा के आनन्द में निमग्न हो जाते हैं। इसका तात्पर्य है कि ‘उपासक सर्वात्मना परमात्मा में मन आदि के द्वारा निमग्न हो ध्यान करें, जैसे सदैव से उपासक सर्वज्ञ महान परमेश्वर में मन, बुद्धि एवं सम्पूर्ण ज्ञान को समर्पित करते आये हैं।
(8) समाधि:-
योग जब अपने ध्यान के अत्युच्य शिखर पर पहुँचता है जहाँ ज्ञाता और ज्ञेय में द्वेत-भाव नहीं रहता वे कर्पूर ज्योति के समान परस्पर में विलीन हो जाते हैं, केवल ध्येय मात्र ही भासता है। ध्याता का अपना स्वरूप भी लुप्त-सा हो जाता है, उस अवस्था को ‘समाधि’ कहते हैं।
ऋग्वेद के मन्त्र मे उपासक द्वारा समाधि अवस्था की अभिलाषा व्यक्त की है कि -
‘‘यदग्ने स्यामहं त्वं त्वं वा घा स्या अहम्।
स्पुष्टे सत्या इहाशिषः।।’’4
हे प्रकाश स्वरूप परमात्मन्! जब कि मैं तू हो जाऊँ और तू भी मैं हो जायें, तो तेरी (आशी-भावनाएँ) कल्याण-भावनाएँ एवं शिक्षाएँ सत्य हो जायें।
ऋग्वेद में समाधि के फल का उल्लेख मिलता है कि वह परमात्मा समाधि-योग करने से साक्षात् होता है। इस मन्त्र के भावार्थ में भाष्यकार पं0 आर्य मुनि ने मन्त्र का अभिप्राय स्पष्ट किया है- ‘योगी लोग जब परमात्मा का ध्यान और समाधि करते हैं। तब परमात्मा उन्हें आत्मस्वरूपवत् भान होता है। इसी भाव को योग-सूत्र में कहा है कि समाधि बेला में उपासक के रूप में परमात्मा की स्थिति होती है।