वेदों में योग विद्या

वेदों में योग का स्वरूप

वेदों में योग का स्वरूप
    वेद सर्व सत्य विद्याओं की पुस्तक है। मानवीय जीवन की समस्त समस्याओं का समाधान वेद में निबद्ध है। यह मान्यता सर्ववदित है। सब सत्य विद्याओं में प्रमुख रूपेण ब्रह्मविद्या आध्यात्मविद्या है, यह भी सर्वमत है। अतः स्पष्ट है कि वेद का ब्रह्मविद्या अर्थात योग-विद्या से घनिष्ठ सम्बन्ध हैै।
    वैदिक संहिताओं  का अध्ययन करने से उनका स्वरूप यज्ञमय अथवा स्तुतिमय प्रतीत होता है। परन्तु ऋग्वेद मन्त्र केवल यज्ञमय अथवा स्तुतिमय न होकर अपितु यज्ञार्थक होने के साथ उनके अन्तरम में योग के बीज विद्यमान हैै। विज्ञान-भिक्षु ने भी स्वीकार किया है कि सभी वेदों के अर्थ का सार ही व्यास के भाव्य में है:-
‘‘सर्ववेदार्थ सारोऽत्र वेद व्यासेन भाषितः।
योग भाष्यभिषेणातों मुमुक्ष्णमिद गर्त।।’’3
व्यास भाष्य में योग-विद्या को ही स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है, उसमें विवेचित विषय को यहाँ वेदार्थ के सार रूप में स्वीकार किया गया है, अतः यह तथ्य पूर्णरूपेण प्रमाणित है कि वेदों में निहित गूढ़ अर्थ का प्रतिपादन योग शास्त्रों में है।
    वस्तुतः वेदों में सत्य एवं तप आदि के अनुष्ठान के फलस्वरूप विशुद्ध सत्त्व सम्पन्न चित्त वाले ऋषित्व को प्राप्त हुए मुनियों के दिव्य चक्षु द्वारा साक्षात्कृत ब्रह्मण्ड के अनेक रहस्य सन्निहित है, जिन रहस्यों का साक्षात्कार यौगिक दृष्टि से सम्पन्न योगीगण सदैव करते रहते है।
    वेदों में जो भी वर्णन मिलता है उनमें चेतन शक्ति के विविध स्तरों की व्याख्या अथवा आत्मसाक्षात्कार की विधि या आत्मसाक्षात्कार के लिए प्ररित करने वाले वचन है।