योग विद्या का प्रारम्भ एवं योग के प्रथम वक्ता
वेद सर्व सत्य विधाओं की पुस्तक है। मानवीय जीवन की समस्त समस्याओं का समाधान वेद में निबद्ध है। यह मान्यता सर्वविदित है। सब सत्य विधाओं में प्रमुखरूपेण ब्रह्मविद्या-अध्यात्मविद्या है, यह भी सर्वगत है। अतः सिद्ध होता है कि वेद का ब्रह्मविद्या अर्थात योग विद्या से घनिष्ठ सम्बन्ध है। कुछ स्थूल दृष्टि सम्पन्न व्यक्तियों का यह मानना है कि ऋग्वेद के प्रथम नव मण्डलों के अनुसन्धान से इस बात की पुष्टि होती है कि प्रारम्भ में आर्य इस संसार के आनन्द में पूर्णरूपेण लीन थे एवं भौतिक सुख की कामना पूर्ति हेतु वे देवी देवताओं की पूजा-अर्चना यज्ञादि कर्म किया करते थे। उनकी यह मान्यता निराधार है। वेद का मुख्य प्रतिपाध विषय ब्रह्म-ज्ञान में ही था अन्य कर्म तो ब्रह्म-ज्ञान परम्परा प्रेरित करने के लिये थे। स्वयं ऋग्वेद के इस मन्त्र से इसकी पुष्टि हो जाती है- ‘‘ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिन्देवा अधि विश्वेनिषेदुः। यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति च इत्तद्विदस्तेय इमें समासते :।।’’10 अर्थात् जिसे ब्रह्म कहते हैं जिसका अधिष्ठान परम-व्योम है, इसी में वेदों की ऋचायें एवं विश्व के समस्त देवों का निवास है। जो इस ब्रह्म तत्त्व को नहीं जानता उसके लिये शब्दात्मिका ऋचायें निभ्र हैं। जो उस अक्षर ब्रह्म को जानता है वही ब्रह्म सम्बन्धी चर्चाओं में स्थान पाने योग्य है। ‘‘सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति...............तत्ते पदे संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्।।’’11 उक्त श्रुति में भी इस कथन का अभिधान होता है कि वेदों में परमात्मस्वरूप ओऽम का ही विवेचन है। यजुर्वेद में योगाभ्यास का उपदेश मिलता है। यजुर्वेद में उपासना का महत्व बताने के पश्चात् परमेश्वर उपासना का उपदेश करने वाले एवं ग्रहण करने वाले दोनों के प्रति प्रतिज्ञा करता है कि जब तुम सनातन ब्रह्म की सत्य, प्रेम सेवा एवं श्रद्धाभाव से अपनी आत्मा को स्थिर करके नमस्कारादि उपासना करोगे तब मैं तुमको आशीर्वाद दूंगा कि सत्यकीर्ति तुम दोनों को ऐसे प्राप्त हो जैसे परम् विद्वान को धर्म-मार्ग यथावत् प्राप्त होता है।’ पुनः परमेश्वर मुमुक्षजनों को उपदेश करता है कि- ‘हे मोक्षमार्ग का अनुसरण करने वाले मनुष्यों। तुम सब ध्यान देकर सुनो कि जिन दिव्य लोकों अर्थात् मोक्षसुखां को पूर्वज लोग प्राप्त हो चुके हैं, उसी उपासना-योग से तुम लोग भी उन सुखों को प्राप्त करो, इसमें सन्देह न करो। इसीलिये मैं तुम्हें उपासना योग से मुक्त करता हूँ। इस प्रकार वेदों में मानवीय जीवन के सर्वांगीण विकास के साथ-साथ निःश्रेयस की प्राप्ति कराने वाली योग-विद्या का उपदेश पदे-पदे उपलब्ध है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि योग-विद्या का प्रारम्भ वेदों से ही हुआ है। कुछ विद्वजनां का मानना है कि योग सैन्धव कालीन सभ्यता की देन है। यदि हम सिन्धु-कालीन सभ्यता का अध्ययन करें जिसको पुरातत्त्वविदों ने कुछ काल पहले उद्घाटित किया है, तो हमें पता चलता है कि मोहन जोदडो में धार्मिक अवशेष प्राप्त हुये हैं उनमें माँ भगवती की मूर्तियाँ के साथ-साथ एक नर देवता की भी मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। जो ऐतिहासिक शिव का आदि रूप प्रतीत होता है। सर ‘जान मार्शल’ ने अपनी पुस्तक ‘मोहन जोदडो एण्ड द इण्डस सिविलाइजेशन में स्पष्ट किया है कि मोहन जोदड़ो में जिस नर देवता की मूर्ति मिली है वह त्रिमुखी है। वह देवता एक कम ऊँचे पीठासन पर योगमुद्रा में बैठा है। उसके दोनों पैर इस प्रकार मुडे़ हुये हैं कि एड़ी से मिल रही है, अंगूठे नीचे की ओर मुडे़ हूये हैं एवं हाथ घुटने के ऊपर आगे की ओर फैले हुए हैं। उपरोक्त तथ्य पर विचार करते समय यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस समय यौगिक-विचार धारा का प्रचलन किसी न किसी रूप में अवश्य रहा होगा। इन्हीं बातों के आधार पर कुछ विद्वानों ने इसे वेद के पूर्व की सभ्यता से ही प्रथम योग-विद्या का अर्विभाव हुआ। आधुनिक शोधों से यह स्पष्ट हो गया है कि सिन्धु सभ्यता, वैदिक सभ्यता के पश्चात् होने वाली वैदिक मूलक सभ्यता है। यह सभ्यता मिश्रित संस्कृति से युक्त थी जो कि परम्परात्मक रूप से आज भी भारतीय संस्कृति की एक प्रबल विशेषता है। स्थान एवं संस्कृति की भिन्नता दृष्टिगोचर होती हैं। इसी भिन्नताओं के आधार पर विदेशी विद्वानों ने इन्हें आर्य एवं द्रविण जाति तथा आर्य एवं अनार्य के रूप में विभक्त किया है। महर्षि अरबिन्दु ने इस तथ्य का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है ‘आर्यां एवं अनार्यां के बीच का भेद जिस पर इतना सब कुछ निर्भर है, अनेक प्रमाणों से यह विदित होता है कि कोई जातीय भेद नहीं अपितु सांस्कृतिक भेद था। स्वामी शंकरानन्द ने इस बात का स्पष्ट किया है कि खुदाई में प्राप्त देवी-देवताओं की मूर्तियाँ आध्यात्मिक प्रतीक चिन्ह वैदिक कालीन चिन्हों से समीकृत किये जा सकते हैं तथा अंत्येष्टि संस्कार एवं अनेक सामाजिक आचार-विचार की समानतायें इसमें निहित मूलभूत एकता का समर्थन करती हैं। इन कारकों के आधार पर निष्कर्ष स्वरूप यह विचार अभिव्यक्त किया है कि मोहन जोदड़ो एवं हड़प्पा की सभ्यता वैदिक सभ्यता से नितान्त भिन्न नहीं थी अपितु ये सभ्यतायें वैदिक सभ्यता की ही अंग थीं। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि योग सम्बन्धी विचारधारा का सर्वप्रथम उल्लेख का सर्वप्रथम उल्लेख हमें ऋग्वेद में प्राप्त होता है परन्तु ऋग्वेद में अपने पूर्वजों, ऋषियों एवं मार्ग प्रदर्शकों के प्रति समर्पण से मार्ग निहित होता है कि उनमें जिस सभ्यता का वर्णन है उसका स्वरूप बहुत पहले निर्धारित हो चुका था। ऋग्वेद में हमें जिस सभ्यता का वर्णन मिलता है वह ़ऋग्वेद की रचना से पूर्व ही फल-फूल चुकी थी और अब प्रौढ़ावस्था को प्राप्त हो रही थी। वस्तुतः वैदिक मन्त्रों की रचना योग की उच्चतम् भूमिकाओं का ही वैदिक मन्त्रों की रचना निहित सत्य का दर्शन करके उसे ही वैदिक मन्त्रों में प्रकट किया। निरूक्त में भी इस आशय का स्पष्ट वर्णन मिलता है- ‘‘तद्यदेनांस्तपस्यमानान्ब्रह्म स्वयम्भवभ्यानर्वत् तदृश्यो भवंस्तदृषीणां ऋषित्वमिति विज्ञायते।’’12 अर्थात् तपस्या परायण व्यक्तियों के हृदय में स्वयंभू ब्रह्म (अकृतक वेद) आविर्भूत हुआ इसीलिये वे ऋषि कहलाए। यही कारण है कि वेद को अपौरूषेय एवं ऋषियों को ‘‘मन्त्रदृष्टा’’ कहा गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि योग-विद्या को किसी काल से सम्बद्ध करना समीचीन नहीं है, क्योंकि यौगिक ज्ञान मनुष्य की अन्तरात्मा से सम्बद्ध है जो कि सृष्टि के आरम्भ काल से ही योग-विद्या का प्रारम्भ हुआ। इस विचार धारा की पुष्टि के लिए हमें योग-विद्या के प्रथम-वक्ता पर विचार करना उचित प्रतीत होता है। योग-दर्शन के प्रथम वक्ता :- याज्ञवाल्क्य स्मृति में योग के वक्ता का वर्णन इस प्रकार है- ‘‘हिरन्यगर्भी योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः।’’13 अर्थात् हिरन्यगर्भ ही योग के वक्ता हैं। इससे पुरातन अन्य कोई नहीं है। ऋग्वेद में इसकी पुष्टि करते हुये कहा गया है कि- ‘‘हिरन्यगर्भ : समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् : सा दाक्षार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हतिषा विधेम्।।’’14 अर्थात् सर्व प्रथम हिरण्यगर्भ ही उत्पन्न हुये, जो सम्पूर्ण विश्व के एक मात्र पति (स्वामी) हैं, जिन्होंने स्वर्ग व पृथिवी को धारण किया, उन प्रजापति देव का हम हव्य द्वारा पूजन करते हैं। महाभारत में भी साँख्य एवं योग के प्रवक्ता का वर्णन स्पष्ट है- ‘‘सांख्यस्य वक्ता कपिलः परमर्षि स उच्चते। हिरण्यगर्भों योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः।।’’15 अर्थात् सांख्य के वक्ता परम् ऋषि कपिल कहे गये हैं और योग के प्राचीन वक्ता हिरण्यगर्भ कहे गये हैं। योग प्रकट होने के रहस्य दर्शाते हुये आगे कहा है कि- ‘‘हिरण्यगर्भो द्युतिमान् य एष छन्दसि स्तुतः। योगैः सम्पूज्यते नित्यं सच लोके विभुः स्मृताः।।’’16 अर्थात यह द्युतिमन हिरण्यगर्भ वही है जिसकी वेद में स्तुति की गई है एवं जिसकी योगी लोग नित्य पूजा करते हैं जो संसार में विभु कहा गया है। ‘‘अद्भुत रामायण में तो स्पष्ट ही हिरण्यगर्भ का जगत का अन्तरात्मा बताया गया है।’’ श्रीमद्भागवत में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि- ‘‘हि योगेश्वर योगनेपुणं हिरण्यगर्भों भगवाऽञ्जगाद यत्। यदन्तकाले त्वपि निर्गुण मने भक्त्या दीधितोज्झित दुष्कलेवरः।।’’17 अर्थात् हे योगेश्वर मनुष्य अनन्त काल में देहाभिमान त्यागकर आपके निर्गुण स्वरूप में चित्त लगाये, इसी भगवान् हिरण्यगर्भ ने योग की सबसे बड़ी कुशलता बताई है। अतः वैदिक-योग का आदि प्रवक्ता हिरण्यगर्भ परमात्मा ही है। हिरण्यगर्भ द्वारा उपदिष्ट योग-विद्या की प्राचीन परम्परा :- सृष्टि के आदिकाल में भगवान् हिरण्यगर्भ न सन्कादिक एवं विवस्वान् को परमात्म-साक्षात्कार रूप एक ही सनातन-योग का उपदेश दिया। अधिकारी भेद के कारण सनातन-योग ब्रह्मयोग अथवा मनयोग एवं कर्मयोग इस प्रकार की दो शाखाओं के रूप में प्रचलित हुआ। पवित्रान्तःकरण वाले सनक, सनातन सनन्दन कपिल आसुरि, वोढ़ पन्चशिखा प्रभृति विद्वान सर्वकर्म सन्यास रूप ब्रह्मयोग अथवा ज्ञानयोग के अनयायी हुए। इसकी पुष्टि महाभारत में की गई है। यही ब्रह्मयोग कालान्तर में सांख्य-योग, ज्ञान-योग, अध्यात्म-योग आदि नामों से प्रसिद्ध हुआ। हिरण्यगर्भ द्वारा प्रवर्तित योग की दूसरी शाखा कर्मयोग की परम्परा में किन्चित व्युत्थित चित्त से युक्त, संसार कार्यां को करते हुये परमात्म-साधन करने वाले विवस्वान् मनु, इक्वाकु व अन्य राजर्षि हुये। इस शाखा का मूल तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति कर्मों को सर्वथा त्याग नहीं सकता वह कर्मों को ईश्वर में समर्पण करते हुये कर्मफलों से आबद्ध न होकर, समाहित चित्त होकर परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है। इस परम्परा का उल्लेख छान्दोग्योपनिषद् में इस प्रकार हुआ है- ‘‘तद् ह एतत् ब्रह्म प्रजापतये प्रजापतिर्मनवे मनुः प्रजाभ्यः।’’18 इसी शाखा के विषय में भगवान श्रीकृष्ण ने यह स्वीकार किया है कि, मेरे द्वारा उपदिष्ट योग-विद्या नवीन नहीं है, अपितु प्राचीन काल से चली आ रही है- ‘‘इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वांकवेऽब्रवीत्।। एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तपः।। स एवायं मया ते द्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। भक्तो सि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।’’19 अर्थात् इस योग को मैंने विवस्वान् के प्रति कहा था, विवस्वान् ने (अपने पुत्र) मनु से कहा और मनु ने (अपने पुत्र) राजा इक्ष्वांकु से कहा। हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त यह योग राजर्षियों द्वारा जाना गया, किन्तु इसके बाद वह योग बहुत काल से लुप्त प्राय हो गया। तु मेरा प्रिय भक्त एवं सखा है, इसीलिये वही पुरातन-योग आज मैंने तुझे बताया है, क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है।