उपनिषदों में योग

उपनिषद्  में योग

 

उपनिषदों में योग

    उपनिषद् शब्द उप-नि-उपसर्गक सद्-धातु से क्विप् प्रत्यय जोड़ने पर निष्पन्न हुआ है। सद्-धातु के तीन अर्थ होते हैं। विशरण-अर्थात नाश होना, गति अर्थात प्राप्त होना, एवं अवसादन अर्थात शिथिल करना। इस प्रकार जिस विद्या के अध्ययन से दृष्टानुभाविक विषयों से वितृष्ण मुमुक्ष-जनों की संसार बीज भूत अविद्या नष्ट हो जाती है, जो विद्या उन्हें ब्रह्म की प्राप्ति करा देती है तथा जिसके परिशीलन से गर्भ-वासादि दुःख वृन्दों का सर्वथा शिथिलीकरण हो जाता है वही अध्यात्म-विद्या उपनिषद् हैं।
    उपनिषद् का एक अर्थ रहस्य माना जाता है। उपनिषदों के अवलोकन से हमें ज्ञात होता है कि औपनिषद ऋषिमुनि उपनिषदों में निहित ब्रह्मविद्या अथवा योग-विद्या को एक रहस्य समझते थे। अतः उस समय सभी व्यक्तियों के समक्ष योग-विद्या को नहीं बताया जाता था। अपितु जिज्ञासु व्यक्तियों की परीक्षा लेकर ही उन्हंे योग-विद्या का प्रशिक्षण दिया जाता था। इस प्रकार उपनिषद् को रहस्य अर्थ मानने पर यही स्पष्ट होता है कि उपनिषद् का तात्पर्य उसी विद्या से है जिसके द्वारा मनुष्य के अविद्या का मूलोच्छेद होकर मोक्ष की प्राप्ति हो। 
    उपनिषदों में हमें सांख्य-योग मंे प्रतिपादित मुख्य तीन सत्ताओं अर्थात (1) पुरूष (ईश्वर), (2) जीव, (3) प्रकृति का विवेचन मिलता है। 
‘‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नेया अभिचाकीशीति।।’’5
    अर्थात् दो सुन्दर पक्षी परस्पर मित्रता भाव रखते हुए समान वृक्ष का सेवन करते हैं। उनमें से एक पक्षी उस वृक्ष का मीठा फल खाता है। दूसरा पक्षी फलों का भक्षण न कर सदा प्रकाशित होता है। 
    यहाँ पर वृक्ष का तात्पर्य शरीर से है, दोनों पक्षी ईश्वर एवं जीव हैं पिप्पल शब्द जीव द्वारा मुक्त भोगों का परिचायक है। 
    उपनिषदों में आत्म-साक्षात्कार का उल्लेख इस प्रकार मिलता है-
    ‘‘न चक्षुषा गृह्यते नापिवाचा नान्यैदेर्वैस्तपसा कर्मणा वा। 
    ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तपश्यते निष्कलं ध्यायमान।’’6
    अर्थात निष्कल-ब्रह्म को चक्षु, वाणी अथवा अन्य इन्द्रियाँ एवं तप तथा विभिन्न प्रकार के कर्म से भी न ही जाना जा सकता इसे सत्त्व के प्रकर्ष से युक्त चित्त में ज्ञान के प्रसाद के ध्यान द्वारा देखा जा सकता है।
    उपनिषदों में मुख्यतः ब्रह्म-विद्या का ही वर्णन मिलता है यही ब्रह्म-विद्या अध्यात्म-विद्या अथवा योग-विद्या के नाम से जानी जाती है।