ध्यान क्या है

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तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।
महर्षि पतंजलि कृत योगदर्शन विभूति पाद सूत्र-२

तत्र-जिस स्थान में धारणा की गई है,उस स्थान में,
प्रत्यय एकतानता--ज्ञेय विषयक ज्ञान का एक समान बना रहना,
ध्यानं-ध्यान है।
 सूत्रार्थ
जिस स्थान में धारणा की हुई है उसी स्थान में ज्ञेय विषयक ज्ञान का एक समान बने रहना
अर्थात् ज्ञेय विषयक ज्ञान से भिन्न ज्ञान को उपस्थित न करना ध्यान है।।
    महर्षि व्यास भाष्य में कहते हैं कि-उस (धारणा विषयक) प्रदेश में ध्येय रूपी आलम्बन वाले ज्ञान की एकरूपता (ज्ञान का) एक समान प्रवाह अर्थात् दूसरे ज्ञान से अमिश्रित ज्ञान प्रवाह 'ध्यान' कहलाता है।
 सरल शब्दों में हम समझ सकते हैं कि ध्यान वह प्रक्रिया है जिसमें जिस विषय का ध्यान किया जा रहा ह उसमें ही एक तानता अर्थात् निरन्तर निमग्न बने रहना है। उपासनाकाल में ईश्वर ही हमारा विषय रहना चाहिए कोई अन्य विषय नहीं जुड़ना चाहिए।
यदि कोई विषय आ भी जाये तो उसमें भी ईश्वर को देख ईश्वर विषय में लग अन्य विषयों से रहित अर्थात् निर्विषय हो जाना है। ध्यानं निर्विषयं मनः-सांख्यदर्शन६-२५,
अर्थात् योग के विषय से भिन्न विषय में मन का न जाना ध्यान है।
 अक्सर लोग चर्चा करते हैं कि विचार शून्य हो जाना ध्यान है। यह ठीक नहीं है ध्यान में ध्येय और ध्याता दोनों का सम्बन्ध बना रहना जरूरी है। ईश्वर का मानसिक जप उसके गुण कर्म स्वभाव का चिंतन तो रहेगा तीसरा अन्य विषय नहीं आने देना है, लोकोक्तिनुसार ज्यों कबाब में हड्डी, यदि आ भी जाये तो उसे निकाल फौरन बाहर कर देना है। इसलिये महर्षि पतंजलि ने ध्यान को प्रत्याहार के बाद लिखा है क्योंकि उन्हें पता था व्यक्ति बिना चित्त को नियंत्रण किये अन्य विषयों से रहित हुए ध्यान में स्थिर नही हो सकता। योगाभ्यासी का मन पर अधिकार होना अत्यधिक जरूरी है। वह प्रत्याहार द्वारा मन को सांसारिक विषयों से रोकना सीख जाता है।
आज ध्यान में लोग क्यों नहीं सफल हो रहे क्योंकि यम नियमों आदि  अंगों के पालन किये बगैर वह ध्यान में बैठते है। सारे दिन अधर्म करने वाले व्यक्ति का उपासना काल में भी उन्हीं वस्तुओं में मन जाता है।
मन को स्थिर करने हमारा व्यवहार काल अष्टाङ्ग योग में वर्णित अंगों के अनुसार बहुत उत्तम होना चाहिए तभी ध्यान फलीभूत होता है। इसलिए ध्यान की सीढ़ी सातवें पायदान में रखी है।
जो योगाभ्यासी साधक अपने आप को महर्षि पतंजलि के बताए पूर्व छह अंगों को जीवन में धार सातवें अंग ध्यान में पारंगत हो जाते हैं वे कुशल योगी ही अंतिम अंग समाधि को सिद्ध कर स्वयं और ईश्वर का साक्षात्कार कर पाते हैं।